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शनिवार, मई 14, 2011

कोशिश करें-तब ब्लाग भी "मीडिया" बन सकता है


अपने चुनाव चिन्ह "कैमरा"के साथ सिरफिरा 
देश में लगभग 6 करोड़ लोग हैं.जो नियमित इंटरनेट का उपयोग करते हैं. देश की कुल जनसंख्या के लिहाज से यह संख्या कुछ खास नहीं है, लेकिन संसाधनों की उपलब्धता को देखें तो यह संख्या कम भी नहीं है. छह करोड़ लोगों की इस संख्या में दिन दूनी रात-चौगुनी बढ़ोत्तरी भी हो रही है. ऐसे समय में ब्लॉग का जन्म और प्रसार वैकल्पिक मीडिया की तलाश में लगे लोगों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है. कुछ लोगों की मेहनत, समझ और सूझबूझ का परिणाम है कि-यह तकनीकि रूप से लगातार और अधिक सक्षम और कारगर होता जा रहा है.
                     एक बात पक्की है कि जिस वैकल्पिक मीडिया की बात हम लोग करते आ रहे थे, वह यही है. जहां अभिव्यक्ति की इतनी अधिक स्वतंत्रता है कि-आप गाली-गलौज भी कर सकते हैं. लेकिन क्या हमें इस स्वतंत्रता का दुरूपयोग करना चाहिए या फिर सचमुच हमारे पास हिन्दी में लिखने के लिए कुछ ऐसा है ही नहीं,  जो समूह के हित के लिए हम लिख सकें? आमतौर पर हम इस माध्यम को अपनी कला, हुनर, बुद्धि, भड़ास आदि निकालने के लिए कर रहे हैं. पितामह ब्लागरों से लेकर नये-नवेले ब्लागरों तक एक बात साफ तौर पर दिखती है कि शुरूआत जहां से होती है वहां से सीढ़ी उत्थान की ओर नहीं पतन की ओर घूम जाती है. यह छीजन अनर्थकारी है.

                    ब्लाग की दुनिया में कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अव्वल तो हम सूचना के बारे में जानते ही नहीं है. जिन सूचनाओं से हम अपनी विद्वता का सबूत देते हैं वे मूलतः टीवी, अखबार और इंटरनेट की जूठन होती है.यानि हम भी उसी खेल के हिस्से होकर रह जाते हैं. जिनके आतंक से बाहर आने के लिए हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे भारी-भरकम शब्दों की माला जपते हैं. देश के कुछ अखबार और टीवी चैनल खबरों की परिभाषा बदलने में लगे हुए हैं. यह उनकी समझ और मजबूरी हो सकती है, हमारे सामने क्या मजबूरी है? कोई मजबूरी नहीं दिखती. यह तो शुद्धरूप से हमारी समझ है कि-हम इस वैकल्पिक मीडिया का क्या उपयोग कर रहे हैं?
          हिंदी ब्लाग दुनिया खंगालने के बाद कुछ ब्लाग ऐसे दिखते हैं, जिनमें काम की जानकारी होती है. ज्यादातर अपनी भड़ास निकालते हैं. गुस्सा है तो जरूर निकालिए. लेकिन उसको कोई तार्किक रूप दीजिए. उसका कोई आधार बनाईये. आप गुस्सा हैं इसमें दो राय नहीं, लेकिन आपके गुस्से से मैं भला क्यों गुस्सा हो जाऊं? लिखनेवाले वाले का धर्म है कि वह अपने गुस्से को पी जाए. वह गुस्सा उसके लिखने में ऐसे उतर आये कि पढ़ने वाले की भौंहे तन जाए. इसके साथ ही एक काम और करना चाहिए. अपने आस-पास ऐसे बहुत से लोग होते हैं,  जिन्हें ब्लाग का रास्ता दिखाया जा सकता है. 
             मैं इस दुनिया में कुल नौ महीने पुराना हूं. मैंने अब तक दो लोगों को ब्लाग बनाने और चलाने के लिए प्रेरित किया है, कई लोगों को अपनी पोस्टों द्वारा देवनागरी की हिंदी लिपि लिखनी सिखाने में मदद की. मैंने अनेक लोगों को छोटी-मोटी जानकारी फ़ोन पर भी दी.इसलिए मैंने अपने फ़ोन नं. भी ब्लॉग पर दे रखे हैं, क्योंकि मेरा विचार है कि-जिस प्रकार मुझे शुरुयात जानकारी न होने से परेशानी हुई थी. अगर किसी को कोई परेशानी हो तो जितनी भी मुझे जानकारी हो दे सकूँ. आज वे दोनों आज ब्लाग की दुनिया में शामिल हो चुके हैं. मुझे लगता है कि अगर हम ऐसे दो-चार लोगों को जोड़ सकें. जो आगे भी दो-चार लोगों को जोड़ने की क्षमता रखते हैं तो परिणाम आशातीत आयेंगे.आप बताईये अपने-आप को कौन अभिव्यक्त नहीं करना चाहेगा. शुरूआत में कुछ ब्लागर मित्रों ने मुझे प्रोत्साहित न किया होता, मेरी तकनीकि तौर पर मदद न की होती और अभी भी कर रहे हैं. एक बार मैं भी जैसे-तैसे घूमते-फिरते यहां पहुंचा था. वैसे ही टहलते-घूमते बाहर चला जाता. उन्हीं मित्रों के सहयोग का परिणाम है कि मैं यहां टिक गया और ब्लाग में मुझे वैकल्पिक मीडिया नजर आने लगा है.
                    टी.वी. ने खबरों के साथ जैसा मजाक किया है, उससे खबर की परिभाषा पर ही सवाल खड़ा हो गया है. मैं कहीं से यह मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि टी.वी. और पत्रकारिता का कोई संबंध है. हमें किसी से ज्यादा गहराई की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. लेकिन यह भी नहीं हो सकता कि-कोई इतना हल्का हो जाए कि उसके होने-न-होने का मतलब ही समाप्त हो जाए. टीआरपी के लिए टी.वी.चैनल खोलते हैं. यह टी.आर.पी जो संस्थाएं तय करती हैं, वे उन्हीं व्यावसायिक घरानों के दिमाग की उपज हैं. जो प्रत्यक्ष तौर पर मनुष्य का शोषण करती हैं. इस लिहाज से टी.वी. चैनल भी परोक्ष रूप से जनता के शोषण के हथियार हैं, वैसे ही जैसे ज्यादातर बड़े अखबार. ये प्रसार माध्यम हैं जो विकृत होकर कंपनियों और रसूखवाले लोगों की गतिविधियों को समाचार बनाकर परोस रहे हैं.

          ब्लागर इसमें हस्तक्षेप कर सकते हैं. खबर की परिभाषा ठीक बनाए रखना है, तब हमें यह करना भी चाहिए. नहीं तो कल जब ब्लागरों की दुनिया इतनी बड़ी हो जाएगी कि- इसका ओर-छोर नहीं होगा. तब यह कमी दंश के रूप में चुभेगी कि-काश उस समय सोच लिया होता, दुर्भाग्य से तब हम समय के बहुत आगे निकल चुके होंगे. हमारी समझ ब्लागजगत का सीमांकन कर चुका होगा और हम खुद को ही छला हुआ महसूस करेंगे. (क्रमश:)  (लेख का कुछ भाग संकलन किया हुआ है इसका सन्दर्भ फ़िलहाल याद नहीं है, मगर लेख का उद्देश्य जनहित है)

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा आलेख है। यदि इस का कुछ भाग छूट गया है तो उसे दूसरी किस्त में प्रस्तुत कीजिएगा।

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  2. आपने सही कहा है

    टी.वी. चैनल भी परोक्ष रूप से जनता के शोषण के हथियार हैं, वैसे ही जैसे ज्यादातर बड़े अखबार. ये प्रसार माध्यम हैं जो विकृत होकर कंपनियों और रसूखवाले लोगों की गतिविधियों को समाचार बनाकर परोस रहे हैं.

    जवाब देंहटाएं
  3. बिलकुल सही कहा मेरे दोस्त .... अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

    जवाब देंहटाएं
  4. सही है बदलाव होना चाहिए

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  5. Ramesh kumar ji me aaap ki is bat happy hu ki koi to desh ke bare me acha vichar fes karta .


    Thanks R.K. ji.

    जवाब देंहटाएं

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मार्मिक अपील-सिर्फ एक फ़ोन की !

मैं इतना बड़ा पत्रकार तो नहीं हूँ मगर 15 साल की पत्रकारिता में मेरी ईमानदारी ही मेरी पूंजी है.आज ईमानदारी की सजा भी भुगत रहा हूँ.पैसों के पीछे भागती दुनिया में अब तक कलम का कोई सच्चा सिपाही नहीं मिला है.अगर संभव हो तो मेरा केस ईमानदारी से इंसानियत के नाते पढ़कर मेरी कोई मदद करें.पत्रकारों, वकीलों,पुलिस अधिकारीयों और जजों के रूखे व्यवहार से बहुत निराश हूँ.मेरे पास चाँदी के सिक्के नहीं है.मैंने कभी मात्र कागज के चंद टुकड़ों के लिए अपना ईमान व ज़मीर का सौदा नहीं किया.पत्रकारिता का एक अच्छा उद्देश्य था.15 साल की पत्रकारिता में ईमानदारी पर कभी कोई अंगुली नहीं उठी.लेकिन जब कोई अंगुली उठी तो दूषित मानसिकता वाली पत्नी ने उठाई.हमारे देश में महिलाओं के हितों बनाये कानून के दुरपयोग ने मुझे बिलकुल तोड़ दिया है.अब चारों से निराश हो चूका हूँ.आत्महत्या के सिवाए कोई चारा नजर नहीं आता है.प्लीज अगर कोई मदद कर सकते है तो जरुर करने की कोशिश करें...........आपका अहसानमंद रहूँगा. फाँसी का फंदा तैयार है, बस मौत का समय नहीं आया है. तलाश है कलम के सच्चे सिपाहियों की और ईमानदार सरकारी अधिकारीयों (जिनमें इंसानियत बची हो) की. विचार कीजियेगा:मृत पत्रकार पर तो कोई भी लेखनी चला सकता है.उसकी याद में या इंसाफ की पुकार के लिए कैंडल मार्च निकाल सकता है.घड़ियाली आंसू कोई भी बहा सकता है.क्या हमने कभी किसी जीवित पत्रकार की मदद की है,जब वो बगैर कसूर किये ही मुसीबत में हों?क्या तब भी हम पैसे लेकर ही अपने समाचार पत्र में खबर प्रकाशित करेंगे?अगर आपने अपना ज़मीर व ईमान नहीं बेचा हो, कलम को कोठे की वेश्या नहीं बनाया हो,कलम के उद्देश्य से वाफिक है और कलम से एक जान बचाने का पुण्य करना हो.तब आप इंसानियत के नाते बिंदापुर थानाध्यक्ष-ऋषिदेव(अब कार्यभार अतिरिक्त थानाध्यक्ष प्यारेलाल:09650254531) व सबइंस्पेक्टर-जितेद्र:9868921169 से मेरी शिकायत का डायरी नं.LC-2399/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 और LC-2400/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 आदि का जिक्र करते हुए केस की प्रगति की जानकारी हेतु एक फ़ोन जरुर कर दें.किसी प्रकार की अतिरिक्त जानकारी हेतु मुझे ईमेल या फ़ोन करें.धन्यबाद! आपका अपना रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा"

क्या आप कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अपने कर्त्यवों को पूरा नहीं करेंगे? कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अधिकारियों को स्टेडियम जाना पड़ता है और थाने में सी.डी सुनने की सुविधा नहीं हैं तो क्या FIR दर्ज नहीं होगी? एक शिकायत पर जांच करने में कितना समय लगता है/लगेगा? चौबीस दिन होने के बाद भी जांच नहीं हुई तो कितने दिन बाद जांच होगी?



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