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शुक्रवार, अक्तूबर 19, 2012

पार्षद से सवाल पूछने पर हथकड़ी

पिछले दो बरस से मोहल्ले का पार्क सूखा पड़ा हो। हालत यह है कि मोहल्ले के बच्चे वहां खेलना तो दूर, बैठ भी नहीं सकते हैं। मोहल्ले के लोग अनेक बार नगर निगम के कार्यालय के चक्कर लगा चुके हैं। पार्षद मुख्य कार्यकारी आयुक्त से मिल चुके हैं लेकिन उन्हें नगर निगम से कोरे आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला। ऐसे में कोई नागरिक पार्क की दीवार पर लिख दे 'दो मिनट बच्चों के हक में रुकें, पार्षद से पूछें दो साल से पार्क सूखा क्यों है?' तो क्या यह मोहल्ले की शांति भंग करने वाला ऐसा कृत्य है जिस के लिए पुलिस उस नागरिक को गिरफ्तार कर ले? ...जब उस नागरिक को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाए और वह सारी बात बताए, तो मजिस्ट्रेट उसे छह माह की अवधि तक शांति बनाए रखने के लिए पांच हजार रुपए का मुचलका (व्यक्तिगत बंधपत्र) प्रस्तुत करने पर ही उसे रिहा करे?
कल राजस्थान की राजधानी जयपुर नगर में यही हुआ। जब दो वर्ष तक लगातार नगर निगम जयपुर के चक्कर लगाने के बाद भी किसी ने पार्क की दुर्दशा पर ध्यान नहीं दिया, तो बबिता वाधवानी ने पार्क की दीवार पर मोटे मोटे अक्षरों में उक्त वाक्य लिख दिया जो तुरंत पार्षद के चाटुकारों की नजर में आ गया। बात पार्षद तक पहुंची तो उसने तुरंत अपने लोगों को पार्क पर की गई उस वॉल पेंटिंग पर काला रंग पुतवाने के लिए भेज दिया। जब उस महिला ने कालक पोत रहे लोगों से सवाल किया, तो वे लोग जवाब देने के बजाय उलटा उसी से पूछने लगे कि क्या यह आप ने लिखा है। उस महिला ने जवाब दिया कि हां, मैंने ही लिखा है और सच लिखा है।

कुछ ही देर बाद पुलिस आई और बबीता को (जिसकी बेटी बीमार थी), बुलाकर थाने ले गई और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। जब बबीता ने पूछा कि उसका कसूर क्या है, तो पुलिस ने बताया कि 28 लोगों ने आप के खिलाफ शिकायत लिखकर दी है कि आप मोहल्ले की शांति भंग करना चाहती हैं। मजिस्ट्रेट ने भी जब बबीता से यही कहा कि 28 व्यक्तियों ने एक साथ हस्ताक्षर करके शिकायत दी है तो मिथ्या कैसे हो सकती है। इस पर बबीता ने मजिस्ट्रेट को इतना ही कहा कि पुलिस ने क्या इस बात की जांच की है कि इन हस्ताक्षर वाले व्यक्तियों का कोई अस्तित्व भी है या नहीं? और है तो क्या वे उस मोहल्ले के निवासी हैं जहां पार्क है?

बबीता को किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन वह इस विवशता में कि घर जाकर अपनी बीमार बेटी को भी संभालना है, व्यक्तिगत बंधपत्र देकर रात को घर लौटी।

यह घटना बताती है कि राजसत्ता का एक मामूली अदना सा प्रतिनिधि, जो जनता द्वारा चुने जाने पर पार्षद बनता है, जनता के प्रति कितना जिम्मेदार है? वह जिम्मेदार हो या न हो, लेकिन नौकरशाही पर उसकी इतनी पकड़ अवश्य है कि वह उससे सवाल पूछने वाले को (चाहे कुछ घंटों के लिए ही सही) हिरासत में अवश्य पहुंचा सकता है। यह घटना यह भी बताती है कि हमारी पुलिस और कार्यकारी मजिस्ट्रेट रसूखदार की बात को तुरंत सुनते हैं और जनता को बिलकुल नहीं गांठते। खैर, कुछ भी हो, इस घटना ने बबिता को यह तो सिखा ही दिया कि अन्याय और निकम्मेपन के विरुद्ध कुछ कहना और करना हो तो अकेले दुस्साहस नहीं करना चाहिए, बल्कि नागरिकों के संगठनों के माध्यम से ही ऐसे काम करने चाहिए। अन्याय और निकम्मेपन के विरुद्ध संघर्ष का पहला कदम जनता को संगठित करना है।
                -गुरुदेव दिनेशराय द्विवेदी जी के ब्लॉग से साभार.
 
काश ! यदि मैं वकील होता तो इस पर जयपुर हाईकोर्ट में याचिका जरूर डालता. पत्रकार हूँ तो अपनी लेखनी का प्रयोग जरुर करूँगा और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक उपरोक्त घटना को जरूर पहुंचाने की कोशिश करूँगा. मैंने अपना फर्ज निभा दिया. क्या आपने शेयर करके अपना फर्ज निभाया ? दोस्तों ! इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें. यह एक महिला पर हमला नहीं बल्कि हर एक उस "वोटर" पर हमला है. जो इन नेताओं को अपने विकास क्षेत्र के लिए वोट देता है. विकास कार्य ना करने पर पूछने का हक भी रखता है. लेकिन जब वो पूछता है तो उसको जेल मिलती है या झूठे मुकद्दमों से दो-चार होना पड़ता है. आओ दोस्तों हम सब मिलकर हमारे देश के भ्रष्ट नेताओं को उनकी औकात बता दें और हमारे पैसों की सैलरी लेने वाले जजों को जनता की बात सुनने के लिए मजबूर कर दें. यहाँ बात इस बात की नहीं है कि हमने वोट नहीं दिया तो हम क्यों लड़ाई करें ? दोस्तों आज बबीता वाधवानी का उत्साह बढ़ाने की जरूरत है. यह तेरी-मेरी लड़ाई नहीं है बल्कि अन्याय के खिलाफ हम सब की लड़ाई है. यदि आप इसी तरह चुप बैठे रहे तो वो दिन दूर नहीं जब फिर से गुलाम होंगे और कीड़े-मकोडों की तरह से मारे जायेंगे. बाकी आपकी जैसी मर्जी वो कीजिए.

मंगलवार, सितंबर 11, 2012

जिसकी लाठी उसी की भैंस-अंधा कानून

दोस्तों ! हाल बुरा है मगर पत्नी के झूठे केसों में जरुर कोर्ट जाना है. दहेज मंगाने और गुजारा  भत्ता के केस आदि है. क्या एक स्वाभिमानी और ईमानदार पत्रकार दहेज नहीं मांग सकता है ? यदि ऐसा नहीं हो सकता है. क्या बुध्दीजीवी इन बातों से बहुत दूर होते है. यदि हाँ तो हमारे देश के जजों को कौन समझाये ? बिल्ली के गले में कौन घंटी बांधे ? हमारे जैसे (सिरफिरा) पत्रकारों की कहाँ सुनते हैं ? अब तो हमारा भी न्याय की आस में दम निकलता जा रहा है.कहा जाता है कि ऊपर वाले पर भरोसा करो, उसके यहाँ देर है मगर अंधेर नहीं है. लेकिन दोस्तों भारत देश (यहाँ पर जनसंख्या के हिसाब से अदालतें ही नहीं है) की कोर्ट में अंधेर है.वहाँ नोटों की रौशनी चलती है. 
आपने पिछले दिनों खबरों में पढ़ा/देखा/सुना होगा कि एक जज ने एक मंत्री को करोड़ों रूपये लेकर उसको "जमानत" दे दी. हमारे देश का कानून का बिगाड़ लेगा उस जज और मंत्री का. अवाम में सब नंगे है. बस जो पकड़ा गया वो चोर है, बाकी सब धर्मात्मा है. पिछले दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने एक टिप्पणी की थी कि-अदालतों के फैसले धनवान व्यक्ति अपने हक में करवा लेता है. आज अदालतों में न्याय दिया नहीं जाता है बल्कि बेचा(मन मर्जी का फैसले को प्राप्त करने के लिए धन देना पड़ता है) जाता है. 
गरीब व्यक्ति को न्याय की उम्मीद में अदालतों में नहीं जाना चाहिए, क्योंकि धनवान के पास वकीलों की मोटी-मोटी फ़ीस देने के लिए पैसा है और जजों व उच्च अधिकारियों को मैनेज करने की ताकत है. हमारे देश में अंधा कानून है और जिसकी लाठी उसी की भैंस है. आप भी अपने विचारों से अवगत करवाएं.
क्या आज सरकार अपनी नीतियों के कारण सभ्य आदमी के आगे ऐसे हालात नहीं बना रही है कि वो हथियार उठाकर अपराधी बन जाए या यह कहे अपराध करने के लिए मजबूर कर रही है. 
आप भी अपने विचारों से अवगत करवाएं.

Photo: क्या आज सरकार अपनी नीतियों के कारण सभ्य आदमी के आगे ऐसे हालात नहीं बना रही है कि वो हथियार उठाकर अपराधी बन जाए या यह कहे अपराध करने के लिए मजबूर कर रही है.

शनिवार, अगस्त 04, 2012

जब प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज न हो

आज हाई प्रोफाइल मामलों को छोड़ दें तो किसी अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करा लेना ही एक "जंग" जीत लेने के बराबर है. आज के समय में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करवाने के लिए किसी सांसद, विधायक या उच्च अधिकारी की सिफारिश चाहिए या रिश्वत दो या वकील के लिए मोटी फ़ीस होना बहुत जरुरी हो गया है. पिछले दिनों अपने ब्लॉग पर आने वालों के लिए मैंने एक प्रश्न पूछा था. क्या आप मानते हैं कि-भारत देश के थानों में जल्दी से ऍफ़आईआर दर्ज ही नहीं की जाती है, आम आदमी को डरा-धमकाकर भगा दिया जाता है या उच्च अधिकारियों या फिर अदालती आदेश पर या सरपंच, पार्षद, विधायक व ससंद के कहने पर ही दर्ज होती हैं? तब 100%लोगों का मानना था कि यह बिलकुल सही है और 35% लोगों ने कहा कि यह एक बहस का मुद्दा है.  कहीं-कहीं पर ऍफ़आईआर दर्ज ना होने के मामले में कुछ जागरूक लोगों ने "सूचना का अधिकार अधिनियम 2005" का सहारा लेकर अपनी ऍफ़आईआर दर्ज भी करवाई हैं. मगर आज भी ऍफ़आईआर दर्ज करवाने को पीड़ित को बहुत धक्के खाने पड़ते हैं. उच्चतम व उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति आँखें मूदकर बैठे हुए हैं, अगर वो चाहे (उनमें इच्छा शक्ति हो) तो कम से कम एफ.आई.आर. दर्ज करने के संदर्भ में ठोस कदम उठा सकते हैं.
यह हमारे देश का कैसा कानून है?
जो वेकसुर लोगों पर ही लागू होता है. जिसकी मार हमेशा गरीब पर पड़ती है. इन अमीरों व राजनीतिकों को कोई सजा देने वाला हमारे देश में जज नहीं है, क्योंकि इन राजनीतिकों के पास पैसा व वकीलों की फ़ौज है. इनकी राज्यों में व केंद्र में सरकार है. पुलिस में इतनी हिम्मत नहीं है कि-इन पर कार्यवाही कर सकें. बेचारों को अपनी नौकरी की चिंता जो है. कानून तो आम-आदमी के लिए बनाये जाते हैं. एक ईमानदार व जागरूक इंसान की तो थाने में ऍफ़ आई आर भी दर्ज नहीं होती हैं. उसे तो थाने, कोर्ट-कचहरी, बड़े अधिकारीयों के चक्कर काटने पड़ते है या सूचना का अधिकार के तहत आवेदन करना पड़ता है. एक बेचारा गरीब कहाँ लाये अपनी FIR दर्ज करवाने के लिए धारा 156 (3) के तहत कोर्ट में केस डालने के लिए वकीलों (जो फ़ीस की रसीद भी नहीं देते हैं) की मोटी-मोटी फ़ीस और फिर इसकी क्या गारंटी है कि-ऍफ़ आई आर दर्ज करवाने वाला केस ही कितने दिनों में खत्म (मेरी जानकारी में ऐसा ही एक केस एक साल से चल रहा है) होगा. जब तक ऍफ़ आई आर दर्ज होगी तब तक इंसान वैसे ही टूट जाएगा. उसके द्वारा उठाई अन्याय की आवाज बंद हो जाएगी तब यह कैसा न्याय ?
एक  छोटा-सा उदाहरण देखें :-करोलबाग में रहने वाले अपूर्व अग्रवाल को फेज रोड पहुंचने पर पता चला कि उनकी जेब से मोबाइल फोन गायब है। फौरन बस से उतरकर उन्होंने पीसीओ से अपने नंबर को डायल किया। एक - दो बार घंटी जाने के बाद मोबाइल बंद हो गया। मोबाइल फोन चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए वह करोलबाग पुलिस स्टेशन पहुंचे , लेकिन ड्यूटी पर तैनात पुलिस अफसर ने उन्हें पहाड़गंज थाने जाने के लिए कहा। पहाड़गंज पुलिस स्टेशन से उन्हें फिर करोलबाग पुलिस स्टेशन भेज दिया। दोनों पुलिस स्टेशन के अधिकारी घटना स्थल को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर होने की बात कहकर उन्हें घंटों परेशान करते रहे। थक - हारकर उन्होंने झूठ का सहारा लिया और पुलिस को बताया कि मोबाइल करोलबाग में चोरी हुआ है। तब जाकर पुलिस ने एफआईआर दर्ज की। पुलिस अधिकारियों को जनता से शिष्टतापूर्वक व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। अगर पुलिस एफआईआर दर्ज करने में आनाकानी करे , दुर्व्यवहार करे , रिश्वत मांगे या बेवजह परेशान करे , तो इसकी शिकायत जरूर करें।
क्या है एफआईआर :- किसी अपराध की सूचना जब किसी पुलिस ऑफिसर को दी जाती है तो उसे एफआईआर कहते हैं। यह सूचना लिखित में होनी चाहिए या फिर इसे लिखित में परिवतिर्त किया गया हो। एफआईआर भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुरूप चलती है। एफआईआर संज्ञेय अपराधों में होती है। अपराध संज्ञेय नहीं है तो एफआईआर नहीं लिखी जाती।
आपके अधिकार :- अगर संज्ञेय अपराध है तो थानाध्यक्ष को तुरंत प्रथम सूचना रिपोर्ट ( एफआईआर ) दर्ज करनी चाहिए। एफआईआर की एक कॉपी लेना शिकायत करने वाले का अधिकार है।
- एफआईआर दर्ज करते वक्त पुलिस अधिकारी अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं लिख सकता , न ही किसी भाग को हाईलाइट कर सकता है।
- संज्ञेय अपराध की स्थिति में सूचना दर्ज करने के बाद पुलिस अधिकारी को चाहिए कि वह संबंधित व्यक्ति को उस सूचना को पढ़कर सुनाए और लिखित सूचना पर उसके साइन कराए।
- एफआईआर की कॉपी पर पुलिस स्टेशन की मोहर व पुलिस अधिकारी के साइन होने चाहिए। साथ ही पुलिस अधिकारी अपने रजिस्टर में यह भी दर्ज करेगा कि सूचना की कॉपी आपको दे दी गई है।
- अगर आपने संज्ञेय अपराध की सूचना पुलिस को लिखित रूप से दी है , तो पुलिस को एफआईआर के साथ आपकी शिकायत की कॉपी लगाना जरूरी है।
- एफआईआर दर्ज कराने के लिए यह जरूरी नहीं है कि शिकायत करने वाले को अपराध की व्यक्तिगत जानकारी हो या उसने अपराध होते हुए देखा हो।
- अगर किसी वजह से आप घटना की तुरंत सूचना पुलिस को नहीं दे पाएं , तो घबराएं नहीं। ऐसी स्थिति में आपको सिर्फ देरी की वजह बतानी होगी।
- कई बार पुलिस एफआईआर दर्ज करने से पहले ही मामले की जांच - पड़ताल शुरू कर देती है , जबकि होना यह चाहिए कि पहले एफआईआर दर्ज हो और फिर जांच - पड़ताल।
- घटना स्थल पर एफआईआर दर्ज कराने की स्थिति में अगर आप एफआईआर की कॉपी नहीं ले पाते हैं , तो पुलिस आपको एफआईआर की कॉपी डाक से भेजेगी।
- आपकी एफआईआर पर क्या कार्रवाई हुई , इस बारे में संबंधित पुलिस आपको डाक से सूचित करेगी।
- अगर थानाध्यक्ष सूचना दर्ज करने से मना करता है , तो सूचना देने वाला व्यक्ति उस सूचना को रजिस्टर्ड डाक द्वारा या मिलकर क्षेत्रीय पुलिस उपायुक्त को दे सकता है , जिस पर उपायुक्त उचित कार्रवाई कर सकता है।
- एफआईआर न लिखे जाने की हालत में आप अपने एरिया मैजिस्ट्रेट के पास धारा
156 (3) के तहत पुलिस को दिशा - निर्देश देने के लिए कंप्लेंट पिटिशन दायर कर सकते हैं कि 24 घंटे के अंदर केस दर्ज कर एफआईआर की कॉपी उपलब्ध कराई जाए।
- अगर अदालत द्वारा दिए गए समय में पुलिस अधिकारी शिकायत दर्ज नहीं करता या इसकी प्रति आपको उपलब्ध नहीं कराता या अदालत के दूसरे आदेशों का पालन नहीं करता , तो उस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई के साथ उसे जेल भी हो सकती है।
- अगर सूचना देने वाला व्यक्ति पक्के तौर पर यह नहीं बता सकता कि अपराध किस जगह हुआ तो पुलिस अधिकारी इस जानकारी के लिए प्रश्न पूछ सकता है और फिर निर्णय पर पहुंच सकता है। इसके बाद तुरंत एफआईआर दर्ज कर वह उसे संबंधित थाने को भेज देगा। इसकी सूचना उस व्यक्ति को देने के साथ - साथ रोजनामचे में भी दर्ज की जाएगी।
- अगर शिकायत करने वाले को घटना की जगह नहीं पता है और पूछताछ के बावजूद भी पुलिस उस जगह को तय नहीं कर पाती है तो भी वह तुरंत एफआईआर दर्ज कर जांच - पड़ताल शुरू कर देगा। अगर जांच के दौरान यह तय हो जाता है कि घटना किस थाना क्षेत्र में घटी , तो केस उस थाने को ट्रांसफर हो जाएगा।
- अगर एफआईआर कराने वाले व्यक्ति की केस की जांच - पड़ताल के दौरान मौत हो जाती है , तो इस एफआईआर को Dying Declaration की तरह अदालत में पेश किया जा सकता है।
- अगर शिकायत में किसी असंज्ञेय अपराध का पता चलता है तो उसे रोजनामचे में दर्ज करना जरूरी है। इसकी भी कॉपी शिकायतकर्ता को जरूर लेनी चाहिए। इसके बाद मैजिस्ट्रेट से सीआरपीसी की धारा 155 के तहत उचित आदेश के लिए संपर्क किया जा सकता है।

गुरुवार, जुलाई 26, 2012

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से पांच प्रश्न

नवनियुक्त राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से आम जनता के पांच प्रश्न

1. ग़रीबी पर अपना पहला संबोधन देने वाले नवनियुक्त राष्ट्रपति, क्या 340 कमरों, 65 मालियों और 200 सेवदारों से युक्त राष्ट्रपति भवन के खर्चों में कुछ कटौती करेंगे ?

2. क्या राष्ट्रपति भवन का विलासिता पूर्ण जीवन देश की ग़रीबी और बेकरी से त्रस्त जनता जनता का अपमान हैं

3. क्या राष्ट्रपति विदेश यात्राओं का मोह त्याग पाएँगे या दूसरे राष्ट्रपतियों की तरह से ग़रीबों का जनता के पैसों को अपनी विलास पूर्ण सुविधाओं के लिए खर्च करते रहेंगे ? 

4. क्या राष्ट्रपति भवन में आम जनता के आने वाले पत्रों का जबाब दिया जाएगा ?

5. क्या राष्ट्रपति अफजल गुरु या कसाब जैसे अपराधियों की फांसी में माफ़ी की "दया याचिका" पर अपना निर्णय "संविधान" में लिखी अवधि (नब्बे दिन) कर देंगे या उनको माफ़ कर देंगे या ऐसी स्थिति बना देंगे कि उनको माफ़ किया जा सके ?

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सोमवार, जुलाई 09, 2012

खुद मिटा देंगे लेकिन "जन लोकपाल बिल" लेकर रहेंगे

दोस्तों ! आखिरकार टीम अन्ना को जंतर-मंतर पर अनशन करने की अनुमति मिल गई है। मिली जानकारी के मुताबिक, शनिवार को टीम अन्ना को 25 जुलाई से 8 अगस्त तक दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन करने के लिए दिल्ली पुलिस की इजाजत मिल गई है । गौरतलब है कि दो दिन पहले दिल्ली पुलिस ने मानसून सेशन के हवाला देते हुए टीम अन्ना को अनुमति देने से मना कर दिया था। टीम अन्ना के अहम अरविंद केजरीवाल के अनुसार दिल्ली पुलिस के अधिकारियों से शनिवार को मुलाकात के बाद यह परमिशन दी गई है। वहीं दिल्ली पुलिस का कहना है कि कुछ शर्तों के साथ टीम अन्ना को यह अनुमति दी गई है । 
दोस्तों ! आप यह मत सोचो कि- देश ने हमारे लिए क्या किया है, बल्कि यह सोचो हमने देश के लिए क्या किया है ? इस बार आप यह सोचकर "आर-पार" की लड़ाई के लिए श्री अन्ना हजारे जी के अनशन में शामिल (अपनी-अपनी योग्यता और सुविधानुसार) हो. वरना वो दिन दूर नहीं. जब हम और हमारी पीढियां कीड़े-मकोड़ों की तरह से रेंग-रेंगकर मरेगी. आज हमारे देश को भ्रष्टाचार ने खोखला कर दिया है. माना आज हम बहुत कमजोर है, लेकिन "एकजुट" होकर लड़ो तब कोई हम सबसे ज्यादा ताकतवर नहीं है. 
 इतिहास गवाह रहा कि जब जब जनता ने एकजुट होकर अपने अधिकारों को लेने के लिए लड़ाई (मांग) की है, तब तब उसको सफलता मिली है. लड़ो और आखिरी दम तक लड़ों. यह मेरी-तुम्हारी लड़ाई नहीं है. हम सब की लड़ाई है. मौत आज भी आनी है और मौत कल भी आनी है. मौत से मत डरो. मौत एक सच्चाई है. इसको दिल से स्वीकार करो.  
अगर हम अपना-अपना राग और अपनी अपनी डपली बजाते रहे तो हमें कभी कोई भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून नहीं मिलेगा. अब यह तुम्हारे ऊपर है कि गीदड़ की मौत मरना चाहते हो या शेर की मौत मरना चाहते हो. सब जोर से कहो कि- खुद मिटा देंगे लेकिन "जन लोकपाल बिल" लेकर रहेंगे. जो हमें जन लोकपाल बिल नहीं देगा तब हम यहाँ(ससंद) रहने नहीं देंगे. 
 निम्नलिखित समाचार भी पढ़ें   भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की लड़ाई

मंगलवार, फ़रवरी 07, 2012

क्या दिल्ली हाईकोर्ट के जज पूरी तरह से ईमानदार है ?

दोस्तों! एक बार जरा मेरी जगह अपने-आपको रखकर सोचो और पढ़ो कि-एक पुलिस अधिकारी रिश्वत न मिलने पर या मिलने पर या सिफारिश के कारण अपने कार्य के नैतिक फर्जों की अनदेखी करते हुए मात्र एक महिला के झूठे आरोपों(बिना ठोस सबूतों और अपने विवेक का प्रयोग न करें) के चलते हुए किसी भी सभ्य, ईमानदार व्यक्ति के खिलाफ झूठा केस दर्ज कर देता है. फिर सरकार द्वारा महिला को उपलब्ध सरकारी वकील, जांच अधिकारी, जज आदि को मुहं मांगी रिश्वत न मिले. इसलिए सिर्फ जमानत देने से इंकार कर देता है. उसके बाद क्या एक सभ्य व्यक्ति द्वारा देश की राष्ट्रपति और दिल्ली हाईकोर्ट से इच्छा मृत्यु की मांग करना अनुचित है. एक गरीब आदमी कहाँ से दिल्ली हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के अपनी याचिका लगाने के लिए पैसा लेकर आए ? क्या वो किसी का गला काटना शुरू कर दें ? क्या एक पुलिस अधिकारी या सरकारी वकील या जांच अधिकारी या जज की गलती की सजा गरीब को मिलनी चाहिए ? हमारे भारत देश में यह कैसी न्याय व्यवस्था है ? क्या हमारे देश में दीमक की तरह फैले भ्रष्टचार ने हमारी न्याय व्यवस्था को खोखला नहीं कर दिया है ? क्या आज हमारी अव्यवस्थित न्याय प्रणाली सभ्य व्यक्तियों को भी अपराधी बनने के लिए मजबूर नहीं कर रही है ? इसका जीता-जागता उदाहरण मेरा "सच का सामना" ब्लॉग है और मेरे द्वारा दिल्ली हाई कोर्ट को लिखा पत्र (नीचे) देखें. क्या दिल्ली हाईकोर्ट में कार्यरत सभी जज पूरी तरह से देश और देश की जनता के प्रति ईमानदार है ? मेरे पत्र को देखे और उसके साथ स्पीड पोस्ट(http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2011/06/blog-post_18.html)की रसीद को देखें. मेरे द्वारा 137 दस्तावेजों के साथ 15 फोटो वाला 760 ग्राम का पैकेट 13/06/2011 को भेजने के बाद भी आज तक संज्ञान नहीं लिया या यह कहूँ देश के राजस्व की उन्हें कोई चिंता नहीं है. उनको सिर्फ अपनी सैलरी लेने तक का ही मतलब है. क्या देश की अदालतों में भेदभाव नहीं नीति नहीं अपनाई जाती है. अगर मेरे जैसा ही अगर किसी महिला ने एक पेज का भी एक पत्र दिल्ली हाईकोर्ट में लिख दिया होता तो दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ न्यायादिश के साथ अन्य जज भी उसके पत्र पर संज्ञान लेकर वाहवाही लूटने में लग जाते है, इसके अनेकों उदाहरण अख़बारों में आ चुके है. क्या भारत देश में एक सभ्य ईमानदार व्यक्ति की कोई इज्जत नहीं ? 
भारत देश की न्याय व्यवस्था ने मेरे परिवार के साथ हमेशा अन्याय किया है. आजतक इन्साफ मिला ही नहीं है और न भविष्य में किसी गरीब को देश की अदालतों से इंसाफ मिलने की उम्मीद है.
मेरे प्रेम-विवाह करने से पहले और बाद के जीवन में आये उतराव-चढ़ाव का उल्लेख करती एक आत्मकथा पत्नी और सुसरालियों के फर्जी केस दर्ज करने वाले अधिकारी और रिश्वत मांगते सरकारी वकील,पुलिस अधिकारी के अलावा धोखा देते वकीलों की कार्यशैली,भ्रष्ट व अंधी-बहरी न्याय व्यवस्था से प्राप्त अनुभवों की कहानी का ही नाम है "सच का सामना"आज के हालतों से अवगत करने का एक प्रयास में इन्टरनेट संस्करण जिसे भविष्य में उपन्यास का रूप प्रदान किया जायेगा.

1. एक आत्मकथा-"सच का सामना"

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/03/blog-post.html

2. मैं देशप्रेम में "सिरफिरा" था, "सिरफिरा" हूँ और "सिरफिरा" रहूँगा

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/03/blog-post_14.html

3. मैंने अपनी माँ का बहुत दिल दुखाया है

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/04/blog-post.html

4. मेरी आखिरी लड़ाई जीवन और मौत की बीच होगी

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/04/blog-post_22.html

5. प्यार करने वाले जीते हैं शान से, मरते हैं शान से

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/04/blog-post_29.html

6. माननीय राष्ट्रपति जी मुझे इच्छा मृत्यु प्रदान करके कृतार्थ करें

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/06/blog-post.html

7. मैंने पत्नी की जो मानसिक यातनाएं भुगती हैं

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/06/blog-post_12.html

8.कोई खाकी वर्दी वाला मेरे मृतक शरीर को न छूने की कोशिश भी न करें

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/06/blog-post_13.html

9. एक पत्र दिल्ली के उच्च न्यायालय में लिखकर भेजा है कि-मैं खाली हाथ आया और खाली हाथ लौट जाऊँगा ज्यादा पढ़ने के लिए किल्क करके पढ़ें.

http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/06/blog-post_18.html

10. भगवान महावीर स्वामी की शरण में गया हूँ

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2011/09/blog-post.html

11. मेरी लम्बी जुल्फों का कल "नाई" मालिक होगा.
http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2011/11/blog-post.html

12.सरकार और उसके अधिकारी सच बोलने वालों को गोली मारना चाहते हैं.

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2011/11/blog-post_02.html

13.मेरी शिकायत उनकी ईमानदारी पर एक प्रश्नचिन्ह है

http://rksirfiraa.blogspot.in/2011/06/blog-post.html

14. यह प्यार क्या है ? 

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2011/12/blog-post.html 

15. हम तो चले तिहाड़ जेल दोस्तों ! 

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2012/02/blog-post.html 

16. क्या महिलाओं को पीटना मर्दानगी की निशानी है ? 

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2012/07/blog-post.html 

17. क्या आज महिलाएं खुद मार खाना चाहती हैं ? 

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2012/07/blog-post_16.html 

18. जिन्दा रहो वरना जीवन लीला समाप्त कर लो 

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2012/07/blog-post_20.html 19. 

दहेज न लेने पर भी सजा मिलती है 

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2012/10/blog-post.html 

20. दहेज न लेने पर भी सजा मिलती है (टिप्पणियाँ) 

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2012/10/blog-post_26.html 

21. यदि आपको क्रोध आता है तो जरुर पढ़े/देखें/सुनें ? 

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2013/03/blog-post.html 

22. "विवाह" नामक संस्था का स्वरूप खराब हो रहा है

http://sach-ka-saamana.blogspot.in/2013/04/blog-post.html

मंगलवार, जनवरी 03, 2012

फेसबुक के दोस्तों को अलविदा !

लो दोस्तों, आपने पुराने साल को विदा कर दिया है. अब मुझे भी विदा करों. ज्यादा जानकारी एक दो दिन में दूँगा. अपनी विदाई पर इन शब्दों के साथ कर रहा हूँ. गौर कीजियेगा कि:- "अरी ओ फेसबुक, अगर जिन्दा रहे तो तेरे पास आ जायेंगे, वरना नए डाक्टरों के रिसर्च* (शोध) के काम आ जायेंगे" 
हाँ, दोस्तों यह बिल्कुल सच है. लौट सके तो नए शब्दों की रचना करेंगे. वरना...अब तक लिखे को ही दोस्त पढ़ते रह जायेंगे. श्री अहमद फ़राज़ साहब का कहना कि:-चलो कुछ दिनों के लिये दुनिया छोड़ देते है ! सुना है लोग बहुत याद करते हैं चले जाने के बाद !! 
*सिखने/सिखाने के उद्देश्य की जाने वाली चीरफाड़.
क्या आदमी को बुजदिलों की मौत मरना चाहिए या वीरों की ? 
शीर्षक में पूछे प्रश्न का उत्तर कहूँ या टिप्पणी दें. 
 दोस्तों, फेसबुक की मेरी वाल पर और ब्लोगों पर इतना है कि अगले चार महीने में पूरा पढ़ भी नहीं पायेंगे. आप और आपकी दुआओं से जीवन रहा तो आप लोगों का "सिर-फिराने" के लिए हाजिर हो जायेगें.यह दुनियाँ ही चला-चली की है. मैं जाऊँगा तब ही तो दूसरा आएगा.आज हममें भोग-विलास की वस्तुओं से मोह ज्यादा है.जब भी समय मिले तब ब्लॉग और वाल जरुर पढ़ें.मैं जानता हूँ कि लोग अभी नहीं पढ़ेंगे लेकिन मेरी मौत के बाद एक-एक शब्द पढेंगे.यह मुझे मालूम है. शायद आपको पता हो कि-हमें डिप्रेशन और डिमेंशिया की बीमारी है. अब अगले चार महीनों में उस पर विजय भी प्राप्त कर लेंगे. 
         अगर कुछ अच्छे और सच्चे ब्लॉगरों ने और फेसबुक/ऑरकुट प्रयोगकर्त्ता ने साथ दिया तो अपनी सच लिखने वाली लेखनी से मेरे ऊपर झूठे केस दर्ज करने वाले अफसरों (अंधी-बहरी सरकार की भ्रष्ट व्यवस्था) की नाक में दम कर दूँगा.हम किसी को थप्पड़ मार नहीं सकते हैं, मगर अपनी लेखनी से अंगार(सच) उगल सकते हैं और उसके लिए फांसी का फंदा चूम सकते हैं. सिंह की तरह से निडरता से सच लिखना जानता हूँ. www.sach-ka-saamana.blogspot.com यहाँ पर क्लिक करें और पढ़ें. आप मेरे किसी भी एक ब्लॉग पर जायेंगे और अगर आपने थोडा-सा ध्यान से पढ़ा.तब आपको एक ब्लॉग पर मेरे दूसरे ब्लोगों के लिंक और बहुत उपयोगी जानकारियां भी प्राप्त होगी. ऐसा मेरा विश्वास और उम्मीद है.
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मार्मिक अपील-सिर्फ एक फ़ोन की !

मैं इतना बड़ा पत्रकार तो नहीं हूँ मगर 15 साल की पत्रकारिता में मेरी ईमानदारी ही मेरी पूंजी है.आज ईमानदारी की सजा भी भुगत रहा हूँ.पैसों के पीछे भागती दुनिया में अब तक कलम का कोई सच्चा सिपाही नहीं मिला है.अगर संभव हो तो मेरा केस ईमानदारी से इंसानियत के नाते पढ़कर मेरी कोई मदद करें.पत्रकारों, वकीलों,पुलिस अधिकारीयों और जजों के रूखे व्यवहार से बहुत निराश हूँ.मेरे पास चाँदी के सिक्के नहीं है.मैंने कभी मात्र कागज के चंद टुकड़ों के लिए अपना ईमान व ज़मीर का सौदा नहीं किया.पत्रकारिता का एक अच्छा उद्देश्य था.15 साल की पत्रकारिता में ईमानदारी पर कभी कोई अंगुली नहीं उठी.लेकिन जब कोई अंगुली उठी तो दूषित मानसिकता वाली पत्नी ने उठाई.हमारे देश में महिलाओं के हितों बनाये कानून के दुरपयोग ने मुझे बिलकुल तोड़ दिया है.अब चारों से निराश हो चूका हूँ.आत्महत्या के सिवाए कोई चारा नजर नहीं आता है.प्लीज अगर कोई मदद कर सकते है तो जरुर करने की कोशिश करें...........आपका अहसानमंद रहूँगा. फाँसी का फंदा तैयार है, बस मौत का समय नहीं आया है. तलाश है कलम के सच्चे सिपाहियों की और ईमानदार सरकारी अधिकारीयों (जिनमें इंसानियत बची हो) की. विचार कीजियेगा:मृत पत्रकार पर तो कोई भी लेखनी चला सकता है.उसकी याद में या इंसाफ की पुकार के लिए कैंडल मार्च निकाल सकता है.घड़ियाली आंसू कोई भी बहा सकता है.क्या हमने कभी किसी जीवित पत्रकार की मदद की है,जब वो बगैर कसूर किये ही मुसीबत में हों?क्या तब भी हम पैसे लेकर ही अपने समाचार पत्र में खबर प्रकाशित करेंगे?अगर आपने अपना ज़मीर व ईमान नहीं बेचा हो, कलम को कोठे की वेश्या नहीं बनाया हो,कलम के उद्देश्य से वाफिक है और कलम से एक जान बचाने का पुण्य करना हो.तब आप इंसानियत के नाते बिंदापुर थानाध्यक्ष-ऋषिदेव(अब कार्यभार अतिरिक्त थानाध्यक्ष प्यारेलाल:09650254531) व सबइंस्पेक्टर-जितेद्र:9868921169 से मेरी शिकायत का डायरी नं.LC-2399/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 और LC-2400/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 आदि का जिक्र करते हुए केस की प्रगति की जानकारी हेतु एक फ़ोन जरुर कर दें.किसी प्रकार की अतिरिक्त जानकारी हेतु मुझे ईमेल या फ़ोन करें.धन्यबाद! आपका अपना रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा"

क्या आप कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अपने कर्त्यवों को पूरा नहीं करेंगे? कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अधिकारियों को स्टेडियम जाना पड़ता है और थाने में सी.डी सुनने की सुविधा नहीं हैं तो क्या FIR दर्ज नहीं होगी? एक शिकायत पर जांच करने में कितना समय लगता है/लगेगा? चौबीस दिन होने के बाद भी जांच नहीं हुई तो कितने दिन बाद जांच होगी?



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