दोस्तों ! हाल बुरा है मगर पत्नी के झूठे केसों
में जरुर कोर्ट जाना है. दहेज मंगाने और गुजारा भत्ता के केस आदि है. क्या
एक स्वाभिमानी और ईमानदार पत्रकार दहेज नहीं मांग सकता है ? यदि ऐसा नहीं हो सकता है. क्या
बुध्दीजीवी इन बातों से बहुत दूर होते है. यदि हाँ तो हमारे देश
के जजों को कौन समझाये ? बिल्ली के गले में कौन घंटी बांधे ? हमारे जैसे
(सिरफिरा) पत्रकारों की कहाँ सुनते हैं ? अब तो हमारा भी न्याय की आस में
दम निकलता जा रहा है.कहा जाता है कि ऊपर वाले पर भरोसा करो, उसके यहाँ देर
है मगर अंधेर नहीं है. लेकिन दोस्तों भारत देश (यहाँ पर जनसंख्या के
हिसाब से अदालतें ही नहीं है) की कोर्ट में अंधेर है.वहाँ नोटों की रौशनी
चलती है.
आपने पिछले दिनों खबरों में पढ़ा/देखा/सुना होगा कि एक जज ने एक
मंत्री को करोड़ों रूपये लेकर उसको "जमानत" दे दी. हमारे देश का कानून का
बिगाड़ लेगा उस जज और मंत्री का. अवाम में सब नंगे है. बस जो पकड़ा गया वो
चोर है, बाकी सब धर्मात्मा है. पिछले दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने
एक टिप्पणी की थी कि-अदालतों के फैसले धनवान व्यक्ति अपने हक में करवा
लेता है. आज अदालतों में न्याय दिया नहीं जाता है बल्कि बेचा(मन मर्जी का
फैसले को प्राप्त करने के लिए धन देना पड़ता है) जाता है.
गरीब व्यक्ति को
न्याय की उम्मीद में अदालतों में नहीं जाना चाहिए, क्योंकि धनवान के पास
वकीलों की मोटी-मोटी फ़ीस देने के लिए पैसा है और जजों व उच्च अधिकारियों को
मैनेज करने की ताकत है. हमारे देश में अंधा कानून है और जिसकी लाठी उसी की
भैंस है. आप भी अपने विचारों से अवगत करवाएं.
क्या
आज सरकार अपनी नीतियों के कारण सभ्य आदमी के आगे ऐसे हालात नहीं बना रही
है कि वो हथियार उठाकर अपराधी बन जाए या यह कहे अपराध करने के लिए मजबूर कर
रही है.
आप भी अपने विचारों से अवगत करवाएं.