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शनिवार, जनवरी 04, 2014

यदि भारत देश में कोई ईमानदार जज है तो "संज्ञान" लेकर दिखाएँ

दिल्ली की सड़कों पर राजनीतिकों का चलता हैं गुंड़ा-राज

डरपोक सुप्रीम कोर्ट-दिल्ली हाईकोर्ट-निचली कोर्ट के जज, दिल्ली नगर निगम और दिल्ली पुलिस के आयुक्त तबादले के डर से ‘संज्ञान’ नहीं लेते हैं। इस कारण से कानून, पुलिस और न्यायालय बनें मात्र एक ढ़ोग। कानून हमारे बाप की जागीर है कुछ ऐसा ही संदेश देते होडिग्स.

दिल्ली: आज पूरे उत्तमनगर सहित पूरी दिल्ली में ’दिल्ली प्रिसेंशन आॅफ डिफेसमेंट आॅफ प्रोपटी एक्ट 2007 कानून को ताक पर रखकर उत्तम नगर, पंजाबी बाग, त्रिनगर और रोहिणी आदि सहित अनेक जगहों में बिजली के खम्बों, टेलीफोन के खम्बों, सरकारी स्कूलों की इमारतों, दिल्ली नगर निगम के पार्कों और सार्वजनिक स्थानों पर हजारों की संख्या में पोस्टर्स/होडिग्स लगा रखे है। इनको देखकर ऐसा लगता है कि दिल्ली की सड़कों पर पूंजीपतियों व राजनीतिकों का ही ‘गुंड़ा-राज’ चलता हैं और पोस्टर्स/होडिग्स कुछ ऐसा ही संदेश देते हैं कि कानून हमारे बाप की जागीर है। उपरोक्त कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन भी है।

उपरोक्त कानूनानुसार होर्डिग्स व बैनर आदि पर कार्यवाही करने हेतु दिल्ली नगर निगम व दिल्ली पुलिस को अधिकार दिया हुआ है। लेकिन जब बाड़ ही खेत को खाए तब उसको कौन बचाए ? जब कानून के रक्षक ही भक्षक बन जाए, तब उन पर कानूनी कार्यवाही की सोचना भी बेमानी है। अंधे-बहरे और डरपोक सुप्रीम कोर्ट - दिल्ली हाईकोर्ट - निचली कोर्ट के जज, दिल्ली नगर निगम और दिल्ली पुलिस के आयुक्त व क्षेत्राीय थानाध्यक्ष अपने तबादले या शोषित किये जाने के डर से ‘संज्ञान’ नहीं लेते हैं। इस कारण से दिल्ली के लगभग सभी थानों के आसपास अनेक होडिग्स लगे रहते हैं और कानून, पुलिस और न्यायालय मात्र एक ढ़ोग बनकर रह गये है।
आज के समय में आजाद व आधुनिक भारत का सपना देखने वाले नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को आज दिलों में नहीं खम्बों पर जगह मिल रही है। उपरोक्त कानून की कार्यवाही प्रक्रिया की जांच करने के लिए शकुन्तला प्रेस ने कुछ दिनों के लिए आज से लगभग पांच साल पहले सरकारी संपत्ति खराब करते हुए खम्बों पर एक बैनर बंधा, मगर किसी ने चालान नहीं काटा, क्योंकि किसी के पास फुसत ही नहीं है। जब नेताओं ने होडिग्स लगा रखे उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता हैं, फिर हमारा कोई क्या बिगाड़ लेगा ? ऐसी मानसकिता की वजह से कुछ पूंजीपतियों व अन्य लोगों ने भी जगह-जगह पर अपने होडिग्स लगा दिये है। यह तो कुछ भी नहीं शकुन्तला प्रेस के सूत्रों की बात माने तो उत्तमनगर के पिनकोड 110059 (जिसमें पांच विधानसभा के क्षेत्रों का समावेश है) में 10000 से भी अधिक होडिग्स लगे हुए है, जो कानूनों को पैरों तले रौंद रहे हैं। शकुन्तला प्रेस के पास 200 से भी अधिक ऐसे फोटोग्राफ्स(जिनको अपनी फेसबुक की आई डी www.facebook.com/kaimara200/photos पर डाऊनलोड किया हुआ) है, राजनीतिकों व अमीरों ने कानूनों को अपने बाप की ज़ागीर बना रखा है और हमारे कानून और व्यवस्था उनके सामने लाचार है। इनमें पार्षद, विधायक और सांसद भी शामिल है। यदि इस संदर्भ में कोई शिकायत आती है तब उस कोई कार्यवाही नहीं की जाती है और किसी ‘नेता’ का फोन आने पर ऐसे मामले चुटकी बजाते ही रफा-दफा हो जाते है। यदि दिल्ली पुलिस व दिल्ली नगर निगम को कोई कार्यवाही भी करनी पड़ जाती है तब किसी पोस्टर चिपकाने वाले या होडिग्स को खम्बें पर चढ़कर बांधने वाले मजबूर व गरीब मजदूर को पकड़कर उसको परेशान करती है और होडिग्स की बिना फोटोग्राफी / वीडियो बनवाये ही उतार देती है या डंडे की सहायता से नीचे खडे़-खडे़ ही फाड़ देती है। भाई-भतीजावाद व पक्षपात करते हुए प्रथम सूचना रिर्पोट (F.I.R) दर्ज नहीं करती है। इसी प्रकार दिल्ली नगर निगम के अफसर भी तबादले या शोषित किये जाने के डर के कारण कोई कार्यवाही नहीं करते हैं।
गौरतलब है बिजली के खम्बों पर चढ़कर होडिग्स को बांधने वाले गरीब और मजदूरों के साथ अनेक दुखद घटना घट चुकी है। जिसमें उनके दोनों हाथ या पैर आदि इस तरह से जख्मी हो चुके है कि आज वो किसी भी तरह का काम करने में असमर्थ है और दूसरों पर मोहताज होकर अपना जीवन जी रहें है।
आज पूरा उत्तमनगर पोस्टरों व होडिग्स से अटा पड़ा है और बिन्दापुर व उत्तम नगर के थानाध्यक्ष बेखबर है। जनलोकपाल कानून बनवाने की प्रक्रिया से निकली ‘‘आम आदमी पार्टी’’ भी अपने कार्यकर्ताओं और नवनियुक्त विधायकों को संभालने में नाकाम हुई है। जहां एक ओर ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के विकासपुरी विधानसभा से जीते महेन्द्र यादव के समर्थकों ने पूरे इलाके को पोस्टरों / होडिग्सों से भर दिया है। वहीं दूसरी ओर उत्तमनगर विधानसभा में बीस साल बाद भाजपा को मिली जीत से अति उत्साहित भाजपा के समर्थकों ने पोस्टरों व होडिग्सों से पूरे क्षेत्र को बदरंग बना दिया है। इसी प्रकार उत्तमनगर व विकासपुरी विधानसभा के हारे हुए अनेक उम्मीदवारों ने समर्थन देने का ‘आभार’ व्यक्त करने या ‘धन्यवाद’ करने के लिए पोस्टरों व होडिग्सों से पूरे क्षेत्र को बदरंग करने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है। एक कानून को बनवाने के लिए दूसरे कानून का उल्लंघन करना कहां तक उचित है? 
किसी नेता का जन्मदिन हो या कोई त्यौहार हो आदि की शुभकामनायें वाले पोस्टरों/होडिग्स देखकर ऐसा लगता है कि हर तीसरा व्यक्ति युवा नेता है और इन दिनों युवा नेताओं की तादाद बढ़ गई है। पोस्टरों/होडिग्स को छापने वाले प्रिन्टरों ने कानूनी कार्यवाही से बचने का तरीका खोजा है कि पोस्टरों/होडिग्स पर न प्रिंटिग प्रेस का नाम होता है व पोस्टरों/होडिग्स छपवाने वाले न किसी को ‘बिल’ देते हैं और काफी प्रिन्टर्स के पास तो बिलबुक ही नहीं होती है और उनकी फर्म के बैंक खाते भी नहीं होते हैं। इस तरह से होडिग्स में बहुत बड़े स्तर पर काले धन का प्रयोग होता है. इससे सरकार को सेवाकर के रूप में मिलने वाले ‘राजस्व’ की हानि होती है और पूरा शहर गंदा होता है। जब ऐसे कानूनों का पालन करवाने की ही व्यवस्था नही है तब ऐसे कानून बनाने का क्या फायदा है? ऐसे कानून की किताबों को फाड़कर फैंक देना चाहिए या ऐसे कानूनों को खत्म कर देना चाहिए।
आयुक्त-दिल्ली नगर निगम व दिल्ली पुलिस, डी.सी.पी, दिल्ली पुलिस-राजौरी गार्डन, थानाध्यक्ष-बिन्दापुर और थानाध्यक्ष-पंजाबी बाग, दिल्ली को इस संदर्भ में पत्रकार रमेश कुमार जैन उर्फ ‘निर्भीक’ द्वारा एक पत्र भी लिखा था कि कृपया करके संस्थाओं चुनाव से संबंधित होर्डिग के अलावा अन्य सभी प्रकार के होर्डिग्स व पोस्टर लगाने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करें। जो उपरोक्त कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का भी उल्लंघन है। उपरोक्त कानूनानुसार होर्डिग्स व बैनर आदि पर कार्यवाही करने हेतु आपको व दिल्ली पुलिस को अधिकार दिया हुआ है। आपके विभागों के अधीन अधिकृत कर्मचारी भाई-भतीजावाद की रणनीति अपनाते हुए उचित कार्यवाही नहीं कर रहे हैं। मेरे पास उत्तम नगर व कई अन्य स्थानों की लगभग दो सौ से भी ज्यादा फोटोग्राफ्स है। जिनपर कार्यवाही नहीं हो सकती है, क्योंकि वे होर्डिग्स उँची पहुंच वालों के है। जिनमें सांसद, विधायक व पार्षद शामिल है। अतः आपसे विनम्र अनुरोध है कि ‘दिल्ली प्रिसेंशन आॅफ डिफेसमेंट आॅफ प्राॅपर्टी एक्ट 2007 कानून’ को सख्ती से लागू करवाये और छुटन नेताओं व लोगों के बीच उपरोक्त कानून का डर पैदा करें। अगर आप ऐसा नहीं कर सकते हैं तब कृपया आम आदमी द्वारा हाऊस टैक्स आदि के माध्यम से आपको दिया धन को उसे मात्रा कुछ समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर खराब न करें। बल्कि उस पैसों को जनहित के कार्यो में लगाये। मगर इस पत्र पर आज तक कोई कार्यवाही नहीं की।
पाठकों, ऐसा नहीं है कि इस संदर्भ में संबंधित विभागों को मालूम नहीं है कभी-कभी मात्र दिखावे के लिए कार्यवाही के आदेश दिये जाते हैं मगर नियमित रूप से कार्यवाही के लिए व्यवस्था ही नहीं बनाई जाती है। इस कानून के साथ भी चार दिन की चांदनी रात, फिर वहीं अंधेरी रात वाली कहावत होती है और ऐसा भी नहीं है कि इस कानून को सख्ती से लागू नहीं किया जा सकता है। आपको सनद होगा पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव के दौरान चुनाव आयोग द्वारा दिल्ली में आचार संहिता लगा रखी थी। तब आपको किसी भी सरकारी संपत्ति आदि पर आपको पोस्टर्स /होडिग्स देखने को नहीं मिले होंगे। यदि कुछ होडिग्स लगे हुए थें वो संबंधित विभाग से अनुमति लेकर लगाये गये थें और इससे संबंधित विभाग को ‘राजस्व’ भी प्राप्त हुआ था। इस तथ्य को देखकर हम कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट, सरकार, दिल्ली हाईकोर्ट, निचली अदालतों, दिल्ली नगर निगम और दिल्ली पुलिस में कोई ताकत नहीं है या पूरी ईमानदारी से एक कानून का पालन करवाने की इच्छा शक्ति नहीं है. फिर क्यों ऐसे कानून बनाकर करोड़ों रूपये का फंड खराब किया जाता हैं. कानून बनाने से पहले उसको लागू करवाने की पूरी व्यवस्था बनानी चाहिए. दूसरे शब्दों में यह कहे कि जब  इनका कोई कहना ही कोई नहीं मानता है. तब क्यों हमें सिर्फ इस एक कानून को लागू करवाने की जिम्मेदारी "चुनाव आयोग" को सौंप देनी चाहिए. 
यदि हमारे देश के सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट की एक-एक बेंच इस कानून का पालन करवाने के लिए स्वंय ‘संज्ञान’ लेकर अपने यहां पर और दिल्ली की एक-एक विधानसभा के हिसाब से निचली कोर्ट के एक-एक जज को नियुक्त करें या स्वंय संज्ञान लेकर हर रोज एक-एक घंटा अतिरिक्त समय देकर ऐसे मामलों को देशहित और समाजहित में शीघ्रता से निपटवाने की ऐसी व्यवस्था करें। जब तक हमारे देश के राजनीतिकों और उनके समर्थकों का आचारण सही नहीं होगा। तब तक अन्य लोग भी इस कानून का उल्लंघन करने से नहीं बचेंगे और दिल्ली सहित अन्य राज्य भी बदरंग होने से बच जायेेंगे।  
माननीय सुप्रीम कोर्ट- दिल्ली हाईकोर्ट- निचली कोर्ट के जज, दिल्ली नगर निगम और दिल्ली पुलिस के आयुक्त जी, मैंने एक ईमानदार पत्रकार होने के नाते अपना फर्ज पूरा कर दिया है. अब देखते हैं कि आप सभी "संज्ञान"लेकर उपरोक्त कानून को सख्ती से लागू करवाते हैं या फिर आप मात्र एक "जोकर" है. आपकी ईमानदारी को मेरी यह चुनौती है कि पूरे देश में केवल एक कानून पूरी ईमानदारी से लागू करवाकर दिखाएँ और आप केवल देश की आम जनता की कमाई खाने वाले अधिकारी नहीं है और आप एक "सैलरी" प्राप्त करने वाले एक सरकारी अधिकारी है. जो पूरी ईमानदारी से अपने पद की गरिमा बढ़ाते हुए अपने फर्ज को पूरा करते हैं.
 पाठकों, मुझे कागजों के टुकड़ेे एकत्रित करने का कोई शौंक नहीं है। अपनी मेहनत से कमाएँ धन को अहमियत जरुर देता हूँ। मगर बेईमानी या अनैतिक कार्यों से आये धन से मुझे कोई मोह नहीं है। बल्कि अच्छे कर्मों के मोती जोड़-जोड़कर माला पिरोना चाहता हूँ। मुझे तो केवल पेन्सिल बनकर आपके लिए ‘सुख’ लिखने की व रबड़ बनकर आपके ‘दुःख’ मिटाने की और दीपक बनकर आपके जीवन में रोशनी लाने की छोटी इच्छा है। यह मेरा आपसे वादा है। अपनी इस इच्छा के चलते बडे़ से बड़े त्याग और बलिदान करने से पीछे नहीं हटूंगा। एक बात याद रखना कि पेन्सिल और रबड़ खुद खत्म होकर भी हमें बहुत कुछ दे जाती है। इसके साथ ही दीपक (दिया) खुद जलकर दूसरों को रौशनी देता है। हमें अपना जीवन ऐसा ही बनाना चाहिए। जो दूसरों के किसी काम आ सकें तब ही यह जीवन सार्थक होगा।  
 
मैं आपके माध्यम से केवल इतना कहना चाहता हूं कि-अगर कोई भ्रष्ट व्यक्ति मेरी नेक-नियति से किये कार्यों के कारण मुझसे द्वेष-भावना रखते हुए मुझे अपने हाथों से जहर खिलाकर मरवाना चाहेगा। तब मैं बड़ी खुशी-खुशी से जहर भी खाने को तैयार हूं और मेरी मौत की आपको "सुपारी" देने की जरूरत नहीं. बस मेरी मौत का स्थान तुम निश्चित कर लो, समय और तारीख मैं खुद निश्चित करूँगा. आप मुझे जगह बताएं, मैं वहीँ आऊंगा मरने के लिए. मगर मुझे धोखा से न मारें, क्योंकि मुझे "पिंजरे में बंद तोते" से अपनी मौत की कोई जाँच नहीं करवानी हैं. मैं एक आजाद पंछी हूँ. आप केवल मेरा शरीर ही नष्ट कर सकते हो, मेरी आत्मा को नष्ट करना तो तुम्हारे बस की बात नहीं है. मैं देश और समाज को उन्नति की ओर लेकर जाना चाहता हूं। 
-आपका अपना निष्पक्ष और अपराध विरोधी पत्रकार रमेश कुमार "निर्भीक"

शुक्रवार, मई 31, 2013

पुलिस व्यवस्था में सुधार की दरकार

इन दिनों दिल्ली समेत समूचे देश की पुलिस आलोचनाओं से घिरी है। महिला-हिंसा में वृध्दि ने पुलिस के विरुध्द जनाक्रोश को और भी बढ़ा दिया है। वैसे भी पुलिस का चरित्र जनता में विश्वास जगाने में कभी सफल नहीं रहा। उसके आचरण से ही उसकी संवेदनहीनता उजागर हो जाती है। जब दिल्ली में दुष्कर्म पीड़िता पांच वर्षीया गुड़िया के पिता को दो हज़ार रुपये थमाकर पुलिस टाल देना चाहती है या दुष्कर्म के विरुध्द प्रदर्शन करती युवती को पुलिस उपायुक्त चांटे जड़ देते हैं या अलीगढ़ में पीड़िता के माता-पिता को पुलिसकर्मी पीटते हैं या घरेलू हिंसा, दुष्कर्म, हत्या और लड़कियों की गुमशुदगी जैसे गंभीर मामलों में भी पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज़ करने की बजाय पीड़ित पक्ष को डरा-धमकाकर भगा दिया जाता है, तो स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस व्यवस्था महिलाओं के प्रति कितनी संवेदनहीन है !फिर जब बुलन्दशहर में दुराचार की रपट लिखवाने गयी दस वर्षीया दलित बालिका को महिला थाने की पुलिसकर्मियों ने हवालात में बन्द कर दिया तो यह भी सिध्द हो गया कि महिला और पुरुषकर्मियों की मानसिकता में कोई अन्तर नहीं होता, दोनों समान रूप से संवेदनहीन होते हैं।

पुलिस एक्ट के अनुसार, पुलिस का प्रमुख कार्य आम नागरिकों की सुरक्षा का ध्यान रखना, अपराध रोकना और अपराधियों को सज़ा दिलवाना है। लेकिन पुलिस अधिकतर राजनेताओं की सेवा में ही लगी रहती है। दिल्ली पुलिस को हर साल बीस हज़ार से अधिक बार महत्वपूर्ण लोगों व कार्यक्रमों को सुरक्षा प्रदान करनी पड़ती है। विशिष्ट लोगों के रूट पर, उनके कार्यक्रम और परिवार की सुरक्षा में व्यस्त रहना पड़ता है। जितनी बार और जितने अधिक पुलिसकर्मी इन गतिविधियों में संलग्न रहते हैं, उतनी बार उतने पुलिस की आम जनता के बीच उपलब्धाता घट जाती है। सोचने की बात है कि एक वर्ष में दिल्ली में 1434 प्रदर्शन, 779 धारने व हड़ताल, 176 रैलियां, 932 जलसे और 613 मेले व त्योहार के आयोजन हो तथा 1897 वीआईपी आगमन और 2033 अन्य सुरक्षा प्रबंधान के अलावा लगभग 2000 मौकों पर विशिष्ट जन को सुरक्षा देनी हो तो कितने अतिरिक्त पुलिसकर्मियों की आवश्यकता होगी ? दिल्ली में पुलिस का ध्यान कानून व्यवस्था से अधिक राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व विदेश से आये राजनीतिज्ञों की सुरक्षा पर रहता है। गत वर्ष एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय 106 बार राष्ट्रपति, 165 बार उपराष्ट्रपति और 160 बार यही रूट प्रधानमंत्री के लिए लगा। 113 विदेशी राजनेताओं, 280 खास विदेशी मेहमानों और 8822 राज्यों के महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा पर पुलिस को विशेष ध्यान देना पड़ा। ऐसे में दिल्ली में अपराधा नियंत्रण और आम जनता की रक्षा हेतु पुलिस की उपलब्धता का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यही स्थिति अन्य राज्यों और उनकी राजधानी की है।

जब-जब देश में कानून की व्यवस्था बिगड़ती है तब-तब पुलिस जनाक्रोश का शिकार होती है। हर कोई पुलिस को नाकारा साबित करने में जुट जाता है। सोचने की बात यह है कि 1861 में बने पुलिस कानून में 152 वर्ष बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ है। सन 1953 में देश के पहले राष्ट्रीय अपराध सर्वेक्षण में कहा गया था-'पुलिस का स्तर बहुत गिर गया है। न तो जांच के तरीके आधुनिक हुए हैं और न ही ग्रामीण थानों में सुविधाएं।' यह स्थिति आज भी पूर्ववत है। हम विदेशों से अपनी तुलना करते हैं। हमारे पुलिस अधिकारी बेहतर बनने का गुर सीखने के लिए विकसित राष्ट्रों में भेजे जाते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए, न्यूयार्क की पुलिस जितना पैसा सिर्फ गश्त पर खर्च करती है, उससे आधो में दिल्ली पुलिस के वेतन भत्ते समेत तमाम खर्च निपट जाते हैं। दुनिया में एक लाख की आबादी पर 250 पुलिसकर्मियों की कमी है। आज पुलिस में जाने के इच्छुक युवाओं की संख्या नगण्य है, यह कोई आकर्षक नौकरी नहीं है। पुलिसकर्मियों से उनके अधिकारी अपने बंगले में काम करवाते हैं। पूरे देश में सुरक्षा कार्य को छोड़कर वे वीआईपी की सुरक्षा में ही अधिकतर व्यस्त हैं, इससे निज़ात मिले तो वे आम जनता की सुरक्षा में तैनात हो सकें।

ग़ौरतलब है कि देश में पुलिस और प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता लम्बे समय से अनुभव की जा रही है। सरकार द्वारा गठित प्रशासित सुधार आयोगों और कई समितियों ने इस संदर्भ में कई बार अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में कई बार अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र व राज्य सरकारों को निर्देश दिए हैं। पर सरकारें इस मामले में उदासीन हैं। तीस वर्ष पूर्व ही राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पुलिस प्रशिक्षण को प्रोफेशनल बनाने की सिफारिश की थी और अपराध शास्त्र जैसे विषय का ज्ञान देने के साथ-साथ अपराध के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को समझने की योग्यता विकसित करने पर भी बल दिया था। मगर क्या हुआ ? आज भी पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र में नवनियुक्त अधिकारियों को प्रशिक्षण देने वाले स्वयं ही उक्त ज्ञान एवं योग्यता नहीं रखते। भारतीय पुलिस सेवा के प्रोबेशनर भी प्रतिस्पर्धाी परीक्षा में उत्तीर्ण होते ही स्वयं को विधिवेत्ता मान लेते हैं और प्रशिक्षण में कोई रूचि नहीं लेते। जबकि अपराधों की रोकथाम, अपराधियों की मानसिकता को समझने और पीड़ितों के साथ मानवीय व्यवहार करने हेतु अपने कार्यक्षेत्र से संबंधित विषय का सम्यक ज्ञान और समूचित प्रशिक्षण नितान्त आवश्यक है। पर केन्द्र व राज्य सरकारों ने इस ओर अब तक ध्यान नहीं दिया है।

स्मरणीय है कि वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों पर बल देते हुए कुछ सुझाव दिए थे। 2007 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी एक रपट प्रस्तुत की थी। फिर केन्द्र सरकार द्वारा 'सोली सोराबजी समिति' का गठन किया गया जिसने 'मॉडल पुलिस एक्ट' का विधोयक तैयार किया था। इस समिति ने बहुत महत्वपूर्ण सुझाव दिये जिन्हें अमल में लाया जाना चाहिए। तदनुसार-कांस्टेबल का पद समाप्त कर उसके बदले सिविल अफसर की नियुक्ति की जानी चाहिए। इनकी आयु सीमा 18 से 23 वर्ष और न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता कक्षा दसवीं तक होनी चाहिए। सिविल पुलिस अफसरों (सीपीओ) को तैनाती के पूर्व वैतनिक कैडेट के रूप में तीन वर्ष तक अपने कार्य का सैध्दान्तिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाए। इसके बाद एक परीक्षा ली जाए। ताकि वे पुलिस स्टडीज़ में स्नातक की उपाधि प्राप्त कर सकें। यह उपाधि सम्बंधित राज्य के मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से ग्रहण की जाए।

वैतनिक कैडेट को परीक्षा उत्तीर्ण करने हेतु केवल दो अवसर दिए जाएं। उत्तीर्ण कैडेट को पुलिस विभाग में सिविल पुलिस अफसर ग्रेड 2 के रूप में नियुक्ति दी जाए। यह पुलिस की सबसे निचली रैंक होगी। आगे उन्नत क्रम में श्रेणियां होगी-सीपीओ ग्रेड 1, सब इन्स्पेक्टर और इन्स्पेक्टर। अभी कांस्टेबल को अपने सेवा काल में हेड कांस्टेबल के रूप में बस एक पदोन्नति मिल जाती है। जबकि सीपीओ को पदोन्नति के तीन अवसर मिलेंगे और उसकी कार्य अवधि भी शिफ्ट के रूप में निश्चित की जाएगी। इससे उसकी कार्यक्षमता और प्रदर्शन में लगातार सुधार हो सकेगा।

अब तक पुलिस की भर्ती लिखित परीक्षा और शारीरिक दक्षता के आधार पर होती है। अत: अभ्यर्थी के मानसिक व्यक्तित्व, संवेदनशीलता, नैतिकता, ईमानदारी, कानून की समझ आदि का आंकलन नहीं हो पाता। अंग्रेजों के जमाने में भारतीय जनता को दबाये रखने के लिए ही पुलिस बल का दमनकारी स्वरूप रखा गया था। जो शासको के प्रति जवाबदेह था, जनता के प्रति नहीं। मगर आज भी उसकी प्रतिबध्दता सत्ता पक्ष के प्रति दिखाई  देती है। जनता के प्रति उसके निर्मम और गैरजिम्मेदाराना रवैये से तो यही सिध्द होती है। जबकि आज पूरे देश में अपराधा बढ़ रहे हैं, उनपर नियंत्रण हेतु पर्याप्त संख्या में संवेदनशील और शिक्षित पुलिस बल की नियुक्ति होनी चाहिए। जो कानून व्यवस्था को ईमानदारीपूर्वक लागू करे और जनता में यह विश्वास जगाए कि पुलिस बिना किसी भेदभाव के उसे सुरक्षा एवं न्याय सुलभ करवाने के लिए है। स्वस्थ सामाजिक पर्यावरण के लिए भी यह आवश्यक है।

सोली सोराबजी समिति की सिफारिशें व्यावहारिक एवं स्वीकार्य होते हुए भी अभी तक ठण्डे बस्ते में हैं। अलबत्ता पुलिस सुधार पर बहुत चर्चाएं हो रही हैं। पुलिस राज्य सूची का विषय है। इस पर विचार हेतु केन्द्रीय गृहमंत्री ने मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन आयोजित किया तो सरकार से बहुत उम्मीद बंधी। मगर गैरकांग्रेसी तो दूर, कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी सम्मेलन में भाग लेना जरूरी नहीं समझा। उन्होंने अपना लिखित भाषण और प्रतिनिधि भेज दिया जिन्होंने प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को संघीय ढांचे के खिलाफ ठहरा दिया। शायद इसलिए कि देश के विभिन्न राज्यों की सरकारें यही चाहती हैं कि पुलिस उनकी जी हुजूरी करती रहे। उन्हें देश में कानून लागू करने वाले या दबंग होकर अपराधियों पर टूट पड़ने वाले अफ़सर नहीं चाहिए। क्योंकि प्राय: सत्तारूढ़ दल के नेता, विधायक, सांसद, पदाधिकारीगण व कार्यकर्ता भी अपराधियों, समाजकंटकों, आतंकवादियों और देशद्रोहियों को संरक्षण देते हैं। पुलिस उनपर स्वेच्छा से कार्रवाई नहीं कर पाती। इसके व्यापक दुष्परिणाम उजागर होते आए हैं। फिर भी पुलिस सुधार की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। पुलिस की नपुंसकता और सड़ी-गली व्यवस्था के लिए सरकार ही जिम्मेदार है। आखिर हम आज़ाद भारत में भी अंग्रेजों के जमाने के पुलिसिया ढांचे को क्यों ढोये जा रहे हैं ?

क्या यह शर्मनाक नहीं कि जिस पुलिस का चरित्र सर्वविदित है उसकी समीक्षा हेतु सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि को यहां आमंत्रित किया ? और 11 दिनों तक विभिन्न राज्यों में भ्रमण कर पुलिस का अध्ययन करने के बाद क्रिस्टोफ हाइन्स ने जो रपट प्रस्तुत की, उसमें ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे सरकार पहले से अवगत न हो। बल्कि हाइन्स का एक आकलन ग़लत है कि, 'भारत इतने तरह के विद्रोहों और उग्रपंथियों से भरा हुआ है कि पुलिस को कई इलाकों में अनचाहे भी कड़क होना पड़ता है। पुलिस से अगर हथियार और अधिकार छीन लिए जाए तो देश के कई इलाकों में अपराधियों का राज हो जाएगा।' भला इस आकलन का क्या औचित्य है ?

जरा सोचिए, क्या अपने देश की बुराइयों या कमियों को विदेशियों से प्रमाणित करवाना कोई समझदारी भरा कदम है ? क्या इससे देशवासी गौरवान्वित होंगे ? निश्चय ही, सुधार की आवश्यकता पुलिस ही नहीं वरन्, समूचे तंत्र में है। अब सरकार को मॉडल पुलिस एक्ट लागू करने में विलंब नहीं करना चाहिए। सोली सोराबजी समिति की सिफ़ारिशों पर सभी राज्यों की सहमति जुटाने और कानून व्यवस्था की स्थिति सुदृढ़ करने पर सरकार का ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। यह वर्तमान परिस्थितियों की मांग है, जिसकी अनदेखी उचित नहीं।
 लेखिका-डॉ. गीता गुप्ता द्वारा लिखित एवं खरी न्यूज डॉट कॉम से साभार.

गुरुवार, अप्रैल 25, 2013

दिल्ली देखी तेरी दिलदारी

इधर दिल्ली को दिलदार-दिल्ली का टैग मिला और उधर पुलिसवालों ने गुड़िया के घरवालों को खर्चा-पानी के लिए दो हजार रुपए की पेशकश कर अपनी दिलदारी दिखाई। यह अवश्य ही दिल्ली के दिलदार होने का ही असर रहा होगा कि पुलिसवालों ने किसी को खर्चा-पानी देने की बात तो की। वरना वे तो खर्चा-पानी लेने के लिए ही जाने जाते हैं। मांग करते रहते हैं कि कुछ तो दिलदारी दिखाओ। खैर जी, वैसे तो दिल्ली को पहले भी दिलवालों की दिल्ली ही कहा जाता था- दिल्ली है दिलवालों की। पर दिल्ली में दिल कहां है? लोग ढ़ूंढने में लगे हैं और वो कहीं मिल ही नहीं रहा। अपनी नन्हीं बेटियों से बलात्कार करनेवालों में दिल होता है क्या? उनके साथ बर्बरता, हैवानियत और पशुता दिखाने वालों की दिल्ली को दिलदार कहने वालों को बहादुरी का कोई बड़ा- सा तमगा अवश्य ही दिया जाना चाहिए। पशुओं में तो दिल अवश्य ही होता है, इसीलिए वे अपने बच्चों की रक्षा करने के लिए जी-जान लड़ा देते हैं, पर दिल्लीवालों में भी होता है, कहना मुश्किल है। वह दिसम्बर में भी नहीं दिखा, वह अप्रैल में भी नहीं दिखा। दिसम्बर में लगा था कि कुछ बदलेगा। अप्रैल तक आते-आते पता चला कि कुछ भी नहीं बदला है। सब ज्यों का त्यों है। दिल्लीवालों की हैवानियत भी, पुलिसवालों की बेदिली भी, सरकार की उदासीनता भी, भीड़ का आक्रोश भी। और उस आक्रोश का ढोंग भी। सब-कुछ ज्यों का त्यों। दिल्ली की मुख्यमंत्री कहती हैं कि दिल्ली में रहते हुए तो उनकी बेटी भी डरती है। फिर भी उन्होंने दिल्ली को दिलदार दिल्ली का टैग दिया। उन्हें कतई डर नहीं लगा। उन्होंने सचमुच बहादुरी दिखाई। लेकिन ऐसा करते वक्त कहीं उन्होंने सिर्फ दिल्ली पुलिस की ही राय तो नहीं ली, जिसने हो सकता है कह दिया हो कि हम से दिलदार कौन होगा जी जो हमेशा जनता का साथ देने के लिए तैयार रहते हैं। हो सकता है जिस बच्ची को एसीपी अहलावत साहब ने थप्पड़ मारा उसे भी यही भ्रम रहा हो कि दिल्ली पुलिस तो हमेशा हमारे साथ रहती है। एसीपी साहब का हाथ उस वक्त खुजली कर रहा होगा और खर्चा-पानी आ नहीं रहा होगा, सो उन्होंने उस बच्ची को जड़ दिया, वरना दिलदारी में तो कोई कमी नहीं रही होगी। वैसे जी, दिल्ली पुलिस की शिकायत जायज है कि हमेशा हम ही निशाने पर क्यों रहते हैं। कमिश्नर साहब को शिकायत है कि हर बार मुझसे ही इस्तीफा क्यों मांगा जाता है। प्रदर्शनकारी भी मांग रहे हैं, विपक्ष वाले भी मांग रहे हैं और सत्ताधारी भी मांग रहे हैं। खुद मुख्यमंत्री भी उनका इस्तीफा मांगती रहती हैं। इस पर उन्हें नाराज नहीं होना चाहिए। क्योंकि उनके इस्तीफे की मांग समान भाव से की जाती है। पर जी प्रदर्शनकारी, विपक्ष वाले और सत्ताधारी चाहे कितने ही संकीर्ण हों, खुद कमिश्नर साहब इतने दिलदार हैं कि कह रहे हैं कि अगर उनके इस्तीफा देने से यह हैवानियत रुक जाए तो वे हजार बार इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं। इसे कहते हैं दिलदारी। बताइए एक बार इस्तीफा न देना पड़े, इसलिए हजार बार की बात करने लगे। इसे कहते हैं कि न नौ मन तेल होगा और न ही राधा नाचेगी। पर जी, दिल्ली पुलिस की यह शिकायत जायज है कि बलात्कार तो पूरे देश में हो रहे हैं। कांग्रेसी शिकायत कर रहे हैं कि मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा बलात्कार होते हैं, पर भाजपा वाले, वहां किसी का इस्तीफा नहीं मांगते। पर जी दिल्ली भी दिलदारी कम ना दिखाती। यहां की पुलिस दिलदार कि पीड़िता के घरवालों को दो हजार रुपए खर्चा-पानी के लिए ऑफर कर देती है, कहां की पुलिस करती है बताइए। यहां के प्रेमीजन तो इतने दिलदार हैं कि सीधे माशूका के दिल में छुरा मारते हैं। दिल घायल करने का और कोई तरीका उन्हें मालूम ही नहीं। अभी तक आशिक कत्ल होते आए थे पर अब दिलदार-दिल्ली में आशिक, माशूकाओं को कत्ल करते हैं। यहां के अड़ोसियों- पड़ोसियों की दिलदारी तो ऐसी है कि वे आपस में झगड़ा नहीं करते, बच्चियों को उठा लेते हैं और उनके साथ रेप करते हैं। मकान मालिक इतने दिलदार कि अपने किराएदारों को तंग करते उनकी औरतों के साथ बलात्कार करते हैं। और सगे- संबंधी इतने दिलदार की बहु-बेटियों को ही नहीं छोड़ते। ऐसे में दिल्ली के नेता भी कम दिलदार नहीं, वे किसी भी मुद्दे पर राजनीति करने से बाज नहीं आते। 
लेखक "सहीराम" द्वारा लिखित "कटाक्ष" कोलम से साभार.

गुरुवार, मार्च 28, 2013

अग्रवाल समाज द्वारा होली मंगल मिलन समारोह

नई दिल्ली :- गत दिन - बुधवार, दिनांक 27/03/2013 को दोपहर तीन बजे से छह बजे तक एस-40/41, परमपुरी, नजदीक शिव मंदिर, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59 में "अग्रवाल समाज, उत्तम नगर (रजि.) द्वारा आयोजित आपसी भाईचारे का प्रतीक "होली मंगल मिलन समारोह" संपन्न हुआ.
 
 
 
 

जिसमें अग्रवाल व जैन समाज के गणमान्य व्यक्तियों ने शिरकत की. इस मौके पर संस्था के महामंत्री नरेश अग्रवाल, प्रधान जगदीश बंसल, अशोक बंसल, सुरेश गर्ग, संजय अग्रवाल, सुरेश डालमिया, रवि जैन, पवन गर्ग, कृष्णशरण जिंदल, हरि किशन गोयल, रामधन जिंदल, पवन सिंगला आदि सहित भाजपा के पवन शर्मा और पूर्व पार्षद श्रीमती सरिता जिंदल, सुनील जिंदल शामिल हुए. इस अवसर संस्था ने सभी विशेष आमंत्रित व मुख्य अतिथिगणों सहित अपने पूर्व प्रधान व महामंत्रियों का चादर ओढाकर और पगड़ी पहनाकर सम्मान किया. 
 
 

इस अवसर पर भगवान श्री कृष्ण-राधा जी के गायिका सविता राघव द्वारा गाए कर्ण प्रिय गीतों की धुन पर उपस्थित व्यक्तियों ने फूलों की होली खेलते हुए झूम-झूमकर नाचें और संगीतमयी रंगारंग प्रस्तुति "साहित्य कला परिषद" के कलाकारों द्वारा कई प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ सम्पन्न हुआ. 

कार्यक्रम देखने आये सभी आमंत्रित सभी मेहमानों के लिए जलपान की व्यवस्था के साथ ही प्रसाद रूपी गुंजिया की विशेष व्यवस्था की हुई थी. कार्यक्रम के कुछ चुनिन्दा पलों की वीडियो नीचे दिए लिंकों पर क्लिक करके देखें. 

सोमवार, मार्च 25, 2013

होली मंगल मिलन और अन्नदान समारोह

गतदिन  दिनांक 23/03/2013 शाम चार बजे "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" के सभी सदस्यों ने चैम्बर नं.217, डिस्ट्रिक सैटर, जनकपुरी, नई दिल्ली-58 में होली मंगल मिलन समारोह बनाने के साथ ही अपनी "अन्न दान" योजना के तहत एक गरीब परिवार को पूरे एक महीने का राशन (जिसमें आटा, चावल, चीनी, तेल, घी, चायपत्ती, साबुन आदि गृहस्थी में उपयोगी खाने की सभी वस्तुएं शामिल थी) दिया. 
 
 
 
 
इस कार्यक्रम में "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" के सभी सदस्यों ने भविष्य में किये जाने सामाजिक कार्यों को लेकर विचार-विमर्श किया और योजनाओं की रुपरेखा तैयार की. फिर सभी ने एक-दूसरे चंदन लगाते हुए गुलाल का ठीका लगाकर गले मिलकर होली की मुबारकबाद दी. जिसमें "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" के एडवोकेट श्री के.सी. मैनी, एडवोकेट अशोक कुमार त्यागी, एडवोकेट अमरदीप मैनी, देशराज लाम्बा, स्वदेश गोस्वामी, जयवीर, पत्रकार रमेश कुमार जैन @ निर्भीक सहित अनेक सदस्य शामिल हुए.

रविवार, मार्च 10, 2013

निर्धन कन्याओं का सामूहिक विवाह समारोह

आज दिनांक 10/03/2013 को महाशिवरात्रि के सुअवसर पर "गौरी शंकर चैरिटेबल ट्रस्ट (पंजी.) नई दिल्ली" के द्वारा स्थान-शिव शक्ति मंदिर, कैलास कालोनी मार्किट, नजदीक मैट्रो स्टेशन, नई दिल्ली-110048 में सुबह साढ़े दस बजे घुड़चडी एवं सेहरा बंदी के साथ कार्यक्रम की शुरुयात होकर बारात एवं अतिथिगण स्वागत, प्रीती भोज और विदाई आदि व्यवस्थाओं के साथ ही निर्धन 12 कन्याओं का सामूहिक विवाह समारोह सम्पन्न करवाया गया.
जिसमें "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" सभी सदस्यों ने 21, 000 (इक्कीस हजार) रूपये का नकद योगदान दिया और इस मंगलमय कार्यक्रम में "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" के श्री के.सी. मैनी, अशोक कुमार त्यागी, सी.एम्.तनेजा, देवराज बधवार, पत्रकार रमेश कुमार जैन @ निर्भीक सहित अनेक सदस्य शामिल हुए. 
 सामूहिक विवाह (निर्धन 12 कन्याओं का) में सभी वर-वधुओं को घर-गृहस्थी का सजो-सामान दिया गया और वर-वधुओं के परिजनों के लिए भोजन आदि की पूरी व्यवस्था भी की गई थी. इस मंगलमय मंगलमय कार्यक्रम के अवसर पर प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा (नेता-विपक्ष, दिल्ली विधानसभा), श्रीमती आरती मेहरा (पूर्व महापौर,दिल्ली) सहित समाज के अनेक गणमान्य अतिथियों ने अपनी उपस्थित दर्ज करवाई. (लेखक के साथ फेसबुक यहाँ पर क्लिक करके जुड़ें)





शुक्रवार, अक्टूबर 19, 2012

पार्षद से सवाल पूछने पर हथकड़ी

पिछले दो बरस से मोहल्ले का पार्क सूखा पड़ा हो। हालत यह है कि मोहल्ले के बच्चे वहां खेलना तो दूर, बैठ भी नहीं सकते हैं। मोहल्ले के लोग अनेक बार नगर निगम के कार्यालय के चक्कर लगा चुके हैं। पार्षद मुख्य कार्यकारी आयुक्त से मिल चुके हैं लेकिन उन्हें नगर निगम से कोरे आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला। ऐसे में कोई नागरिक पार्क की दीवार पर लिख दे 'दो मिनट बच्चों के हक में रुकें, पार्षद से पूछें दो साल से पार्क सूखा क्यों है?' तो क्या यह मोहल्ले की शांति भंग करने वाला ऐसा कृत्य है जिस के लिए पुलिस उस नागरिक को गिरफ्तार कर ले? ...जब उस नागरिक को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाए और वह सारी बात बताए, तो मजिस्ट्रेट उसे छह माह की अवधि तक शांति बनाए रखने के लिए पांच हजार रुपए का मुचलका (व्यक्तिगत बंधपत्र) प्रस्तुत करने पर ही उसे रिहा करे?
कल राजस्थान की राजधानी जयपुर नगर में यही हुआ। जब दो वर्ष तक लगातार नगर निगम जयपुर के चक्कर लगाने के बाद भी किसी ने पार्क की दुर्दशा पर ध्यान नहीं दिया, तो बबिता वाधवानी ने पार्क की दीवार पर मोटे मोटे अक्षरों में उक्त वाक्य लिख दिया जो तुरंत पार्षद के चाटुकारों की नजर में आ गया। बात पार्षद तक पहुंची तो उसने तुरंत अपने लोगों को पार्क पर की गई उस वॉल पेंटिंग पर काला रंग पुतवाने के लिए भेज दिया। जब उस महिला ने कालक पोत रहे लोगों से सवाल किया, तो वे लोग जवाब देने के बजाय उलटा उसी से पूछने लगे कि क्या यह आप ने लिखा है। उस महिला ने जवाब दिया कि हां, मैंने ही लिखा है और सच लिखा है।

कुछ ही देर बाद पुलिस आई और बबीता को (जिसकी बेटी बीमार थी), बुलाकर थाने ले गई और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। जब बबीता ने पूछा कि उसका कसूर क्या है, तो पुलिस ने बताया कि 28 लोगों ने आप के खिलाफ शिकायत लिखकर दी है कि आप मोहल्ले की शांति भंग करना चाहती हैं। मजिस्ट्रेट ने भी जब बबीता से यही कहा कि 28 व्यक्तियों ने एक साथ हस्ताक्षर करके शिकायत दी है तो मिथ्या कैसे हो सकती है। इस पर बबीता ने मजिस्ट्रेट को इतना ही कहा कि पुलिस ने क्या इस बात की जांच की है कि इन हस्ताक्षर वाले व्यक्तियों का कोई अस्तित्व भी है या नहीं? और है तो क्या वे उस मोहल्ले के निवासी हैं जहां पार्क है?

बबीता को किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन वह इस विवशता में कि घर जाकर अपनी बीमार बेटी को भी संभालना है, व्यक्तिगत बंधपत्र देकर रात को घर लौटी।

यह घटना बताती है कि राजसत्ता का एक मामूली अदना सा प्रतिनिधि, जो जनता द्वारा चुने जाने पर पार्षद बनता है, जनता के प्रति कितना जिम्मेदार है? वह जिम्मेदार हो या न हो, लेकिन नौकरशाही पर उसकी इतनी पकड़ अवश्य है कि वह उससे सवाल पूछने वाले को (चाहे कुछ घंटों के लिए ही सही) हिरासत में अवश्य पहुंचा सकता है। यह घटना यह भी बताती है कि हमारी पुलिस और कार्यकारी मजिस्ट्रेट रसूखदार की बात को तुरंत सुनते हैं और जनता को बिलकुल नहीं गांठते। खैर, कुछ भी हो, इस घटना ने बबिता को यह तो सिखा ही दिया कि अन्याय और निकम्मेपन के विरुद्ध कुछ कहना और करना हो तो अकेले दुस्साहस नहीं करना चाहिए, बल्कि नागरिकों के संगठनों के माध्यम से ही ऐसे काम करने चाहिए। अन्याय और निकम्मेपन के विरुद्ध संघर्ष का पहला कदम जनता को संगठित करना है।
                -गुरुदेव दिनेशराय द्विवेदी जी के ब्लॉग से साभार.
 
काश ! यदि मैं वकील होता तो इस पर जयपुर हाईकोर्ट में याचिका जरूर डालता. पत्रकार हूँ तो अपनी लेखनी का प्रयोग जरुर करूँगा और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक उपरोक्त घटना को जरूर पहुंचाने की कोशिश करूँगा. मैंने अपना फर्ज निभा दिया. क्या आपने शेयर करके अपना फर्ज निभाया ? दोस्तों ! इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें. यह एक महिला पर हमला नहीं बल्कि हर एक उस "वोटर" पर हमला है. जो इन नेताओं को अपने विकास क्षेत्र के लिए वोट देता है. विकास कार्य ना करने पर पूछने का हक भी रखता है. लेकिन जब वो पूछता है तो उसको जेल मिलती है या झूठे मुकद्दमों से दो-चार होना पड़ता है. आओ दोस्तों हम सब मिलकर हमारे देश के भ्रष्ट नेताओं को उनकी औकात बता दें और हमारे पैसों की सैलरी लेने वाले जजों को जनता की बात सुनने के लिए मजबूर कर दें. यहाँ बात इस बात की नहीं है कि हमने वोट नहीं दिया तो हम क्यों लड़ाई करें ? दोस्तों आज बबीता वाधवानी का उत्साह बढ़ाने की जरूरत है. यह तेरी-मेरी लड़ाई नहीं है बल्कि अन्याय के खिलाफ हम सब की लड़ाई है. यदि आप इसी तरह चुप बैठे रहे तो वो दिन दूर नहीं जब फिर से गुलाम होंगे और कीड़े-मकोडों की तरह से मारे जायेंगे. बाकी आपकी जैसी मर्जी वो कीजिए.

मंगलवार, सितंबर 11, 2012

जिसकी लाठी उसी की भैंस-अंधा कानून

दोस्तों ! हाल बुरा है मगर पत्नी के झूठे केसों में जरुर कोर्ट जाना है. दहेज मंगाने और गुजारा  भत्ता के केस आदि है. क्या एक स्वाभिमानी और ईमानदार पत्रकार दहेज नहीं मांग सकता है ? यदि ऐसा नहीं हो सकता है. क्या बुध्दीजीवी इन बातों से बहुत दूर होते है. यदि हाँ तो हमारे देश के जजों को कौन समझाये ? बिल्ली के गले में कौन घंटी बांधे ? हमारे जैसे (सिरफिरा) पत्रकारों की कहाँ सुनते हैं ? अब तो हमारा भी न्याय की आस में दम निकलता जा रहा है.कहा जाता है कि ऊपर वाले पर भरोसा करो, उसके यहाँ देर है मगर अंधेर नहीं है. लेकिन दोस्तों भारत देश (यहाँ पर जनसंख्या के हिसाब से अदालतें ही नहीं है) की कोर्ट में अंधेर है.वहाँ नोटों की रौशनी चलती है. 
आपने पिछले दिनों खबरों में पढ़ा/देखा/सुना होगा कि एक जज ने एक मंत्री को करोड़ों रूपये लेकर उसको "जमानत" दे दी. हमारे देश का कानून का बिगाड़ लेगा उस जज और मंत्री का. अवाम में सब नंगे है. बस जो पकड़ा गया वो चोर है, बाकी सब धर्मात्मा है. पिछले दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने एक टिप्पणी की थी कि-अदालतों के फैसले धनवान व्यक्ति अपने हक में करवा लेता है. आज अदालतों में न्याय दिया नहीं जाता है बल्कि बेचा(मन मर्जी का फैसले को प्राप्त करने के लिए धन देना पड़ता है) जाता है. 
गरीब व्यक्ति को न्याय की उम्मीद में अदालतों में नहीं जाना चाहिए, क्योंकि धनवान के पास वकीलों की मोटी-मोटी फ़ीस देने के लिए पैसा है और जजों व उच्च अधिकारियों को मैनेज करने की ताकत है. हमारे देश में अंधा कानून है और जिसकी लाठी उसी की भैंस है. आप भी अपने विचारों से अवगत करवाएं.
क्या आज सरकार अपनी नीतियों के कारण सभ्य आदमी के आगे ऐसे हालात नहीं बना रही है कि वो हथियार उठाकर अपराधी बन जाए या यह कहे अपराध करने के लिए मजबूर कर रही है. 
आप भी अपने विचारों से अवगत करवाएं.

Photo: क्या आज सरकार अपनी नीतियों के कारण सभ्य आदमी के आगे ऐसे हालात नहीं बना रही है कि वो हथियार उठाकर अपराधी बन जाए या यह कहे अपराध करने के लिए मजबूर कर रही है.

शनिवार, अगस्त 04, 2012

जब प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज न हो

आज हाई प्रोफाइल मामलों को छोड़ दें तो किसी अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करा लेना ही एक "जंग" जीत लेने के बराबर है. आज के समय में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करवाने के लिए किसी सांसद, विधायक या उच्च अधिकारी की सिफारिश चाहिए या रिश्वत दो या वकील के लिए मोटी फ़ीस होना बहुत जरुरी हो गया है. पिछले दिनों अपने ब्लॉग पर आने वालों के लिए मैंने एक प्रश्न पूछा था. क्या आप मानते हैं कि-भारत देश के थानों में जल्दी से ऍफ़आईआर दर्ज ही नहीं की जाती है, आम आदमी को डरा-धमकाकर भगा दिया जाता है या उच्च अधिकारियों या फिर अदालती आदेश पर या सरपंच, पार्षद, विधायक व ससंद के कहने पर ही दर्ज होती हैं? तब 100%लोगों का मानना था कि यह बिलकुल सही है और 35% लोगों ने कहा कि यह एक बहस का मुद्दा है.  कहीं-कहीं पर ऍफ़आईआर दर्ज ना होने के मामले में कुछ जागरूक लोगों ने "सूचना का अधिकार अधिनियम 2005" का सहारा लेकर अपनी ऍफ़आईआर दर्ज भी करवाई हैं. मगर आज भी ऍफ़आईआर दर्ज करवाने को पीड़ित को बहुत धक्के खाने पड़ते हैं. उच्चतम व उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति आँखें मूदकर बैठे हुए हैं, अगर वो चाहे (उनमें इच्छा शक्ति हो) तो कम से कम एफ.आई.आर. दर्ज करने के संदर्भ में ठोस कदम उठा सकते हैं.
यह हमारे देश का कैसा कानून है?
जो वेकसुर लोगों पर ही लागू होता है. जिसकी मार हमेशा गरीब पर पड़ती है. इन अमीरों व राजनीतिकों को कोई सजा देने वाला हमारे देश में जज नहीं है, क्योंकि इन राजनीतिकों के पास पैसा व वकीलों की फ़ौज है. इनकी राज्यों में व केंद्र में सरकार है. पुलिस में इतनी हिम्मत नहीं है कि-इन पर कार्यवाही कर सकें. बेचारों को अपनी नौकरी की चिंता जो है. कानून तो आम-आदमी के लिए बनाये जाते हैं. एक ईमानदार व जागरूक इंसान की तो थाने में ऍफ़ आई आर भी दर्ज नहीं होती हैं. उसे तो थाने, कोर्ट-कचहरी, बड़े अधिकारीयों के चक्कर काटने पड़ते है या सूचना का अधिकार के तहत आवेदन करना पड़ता है. एक बेचारा गरीब कहाँ लाये अपनी FIR दर्ज करवाने के लिए धारा 156 (3) के तहत कोर्ट में केस डालने के लिए वकीलों (जो फ़ीस की रसीद भी नहीं देते हैं) की मोटी-मोटी फ़ीस और फिर इसकी क्या गारंटी है कि-ऍफ़ आई आर दर्ज करवाने वाला केस ही कितने दिनों में खत्म (मेरी जानकारी में ऐसा ही एक केस एक साल से चल रहा है) होगा. जब तक ऍफ़ आई आर दर्ज होगी तब तक इंसान वैसे ही टूट जाएगा. उसके द्वारा उठाई अन्याय की आवाज बंद हो जाएगी तब यह कैसा न्याय ?
एक  छोटा-सा उदाहरण देखें :-करोलबाग में रहने वाले अपूर्व अग्रवाल को फेज रोड पहुंचने पर पता चला कि उनकी जेब से मोबाइल फोन गायब है। फौरन बस से उतरकर उन्होंने पीसीओ से अपने नंबर को डायल किया। एक - दो बार घंटी जाने के बाद मोबाइल बंद हो गया। मोबाइल फोन चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए वह करोलबाग पुलिस स्टेशन पहुंचे , लेकिन ड्यूटी पर तैनात पुलिस अफसर ने उन्हें पहाड़गंज थाने जाने के लिए कहा। पहाड़गंज पुलिस स्टेशन से उन्हें फिर करोलबाग पुलिस स्टेशन भेज दिया। दोनों पुलिस स्टेशन के अधिकारी घटना स्थल को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर होने की बात कहकर उन्हें घंटों परेशान करते रहे। थक - हारकर उन्होंने झूठ का सहारा लिया और पुलिस को बताया कि मोबाइल करोलबाग में चोरी हुआ है। तब जाकर पुलिस ने एफआईआर दर्ज की। पुलिस अधिकारियों को जनता से शिष्टतापूर्वक व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। अगर पुलिस एफआईआर दर्ज करने में आनाकानी करे , दुर्व्यवहार करे , रिश्वत मांगे या बेवजह परेशान करे , तो इसकी शिकायत जरूर करें।
क्या है एफआईआर :- किसी अपराध की सूचना जब किसी पुलिस ऑफिसर को दी जाती है तो उसे एफआईआर कहते हैं। यह सूचना लिखित में होनी चाहिए या फिर इसे लिखित में परिवतिर्त किया गया हो। एफआईआर भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुरूप चलती है। एफआईआर संज्ञेय अपराधों में होती है। अपराध संज्ञेय नहीं है तो एफआईआर नहीं लिखी जाती।
आपके अधिकार :- अगर संज्ञेय अपराध है तो थानाध्यक्ष को तुरंत प्रथम सूचना रिपोर्ट ( एफआईआर ) दर्ज करनी चाहिए। एफआईआर की एक कॉपी लेना शिकायत करने वाले का अधिकार है।
- एफआईआर दर्ज करते वक्त पुलिस अधिकारी अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं लिख सकता , न ही किसी भाग को हाईलाइट कर सकता है।
- संज्ञेय अपराध की स्थिति में सूचना दर्ज करने के बाद पुलिस अधिकारी को चाहिए कि वह संबंधित व्यक्ति को उस सूचना को पढ़कर सुनाए और लिखित सूचना पर उसके साइन कराए।
- एफआईआर की कॉपी पर पुलिस स्टेशन की मोहर व पुलिस अधिकारी के साइन होने चाहिए। साथ ही पुलिस अधिकारी अपने रजिस्टर में यह भी दर्ज करेगा कि सूचना की कॉपी आपको दे दी गई है।
- अगर आपने संज्ञेय अपराध की सूचना पुलिस को लिखित रूप से दी है , तो पुलिस को एफआईआर के साथ आपकी शिकायत की कॉपी लगाना जरूरी है।
- एफआईआर दर्ज कराने के लिए यह जरूरी नहीं है कि शिकायत करने वाले को अपराध की व्यक्तिगत जानकारी हो या उसने अपराध होते हुए देखा हो।
- अगर किसी वजह से आप घटना की तुरंत सूचना पुलिस को नहीं दे पाएं , तो घबराएं नहीं। ऐसी स्थिति में आपको सिर्फ देरी की वजह बतानी होगी।
- कई बार पुलिस एफआईआर दर्ज करने से पहले ही मामले की जांच - पड़ताल शुरू कर देती है , जबकि होना यह चाहिए कि पहले एफआईआर दर्ज हो और फिर जांच - पड़ताल।
- घटना स्थल पर एफआईआर दर्ज कराने की स्थिति में अगर आप एफआईआर की कॉपी नहीं ले पाते हैं , तो पुलिस आपको एफआईआर की कॉपी डाक से भेजेगी।
- आपकी एफआईआर पर क्या कार्रवाई हुई , इस बारे में संबंधित पुलिस आपको डाक से सूचित करेगी।
- अगर थानाध्यक्ष सूचना दर्ज करने से मना करता है , तो सूचना देने वाला व्यक्ति उस सूचना को रजिस्टर्ड डाक द्वारा या मिलकर क्षेत्रीय पुलिस उपायुक्त को दे सकता है , जिस पर उपायुक्त उचित कार्रवाई कर सकता है।
- एफआईआर न लिखे जाने की हालत में आप अपने एरिया मैजिस्ट्रेट के पास धारा
156 (3) के तहत पुलिस को दिशा - निर्देश देने के लिए कंप्लेंट पिटिशन दायर कर सकते हैं कि 24 घंटे के अंदर केस दर्ज कर एफआईआर की कॉपी उपलब्ध कराई जाए।
- अगर अदालत द्वारा दिए गए समय में पुलिस अधिकारी शिकायत दर्ज नहीं करता या इसकी प्रति आपको उपलब्ध नहीं कराता या अदालत के दूसरे आदेशों का पालन नहीं करता , तो उस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई के साथ उसे जेल भी हो सकती है।
- अगर सूचना देने वाला व्यक्ति पक्के तौर पर यह नहीं बता सकता कि अपराध किस जगह हुआ तो पुलिस अधिकारी इस जानकारी के लिए प्रश्न पूछ सकता है और फिर निर्णय पर पहुंच सकता है। इसके बाद तुरंत एफआईआर दर्ज कर वह उसे संबंधित थाने को भेज देगा। इसकी सूचना उस व्यक्ति को देने के साथ - साथ रोजनामचे में भी दर्ज की जाएगी।
- अगर शिकायत करने वाले को घटना की जगह नहीं पता है और पूछताछ के बावजूद भी पुलिस उस जगह को तय नहीं कर पाती है तो भी वह तुरंत एफआईआर दर्ज कर जांच - पड़ताल शुरू कर देगा। अगर जांच के दौरान यह तय हो जाता है कि घटना किस थाना क्षेत्र में घटी , तो केस उस थाने को ट्रांसफर हो जाएगा।
- अगर एफआईआर कराने वाले व्यक्ति की केस की जांच - पड़ताल के दौरान मौत हो जाती है , तो इस एफआईआर को Dying Declaration की तरह अदालत में पेश किया जा सकता है।
- अगर शिकायत में किसी असंज्ञेय अपराध का पता चलता है तो उसे रोजनामचे में दर्ज करना जरूरी है। इसकी भी कॉपी शिकायतकर्ता को जरूर लेनी चाहिए। इसके बाद मैजिस्ट्रेट से सीआरपीसी की धारा 155 के तहत उचित आदेश के लिए संपर्क किया जा सकता है।

गुरुवार, जुलाई 26, 2012

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से पांच प्रश्न

नवनियुक्त राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से आम जनता के पांच प्रश्न

1. ग़रीबी पर अपना पहला संबोधन देने वाले नवनियुक्त राष्ट्रपति, क्या 340 कमरों, 65 मालियों और 200 सेवदारों से युक्त राष्ट्रपति भवन के खर्चों में कुछ कटौती करेंगे ?

2. क्या राष्ट्रपति भवन का विलासिता पूर्ण जीवन देश की ग़रीबी और बेकरी से त्रस्त जनता जनता का अपमान हैं

3. क्या राष्ट्रपति विदेश यात्राओं का मोह त्याग पाएँगे या दूसरे राष्ट्रपतियों की तरह से ग़रीबों का जनता के पैसों को अपनी विलास पूर्ण सुविधाओं के लिए खर्च करते रहेंगे ? 

4. क्या राष्ट्रपति भवन में आम जनता के आने वाले पत्रों का जबाब दिया जाएगा ?

5. क्या राष्ट्रपति अफजल गुरु या कसाब जैसे अपराधियों की फांसी में माफ़ी की "दया याचिका" पर अपना निर्णय "संविधान" में लिखी अवधि (नब्बे दिन) कर देंगे या उनको माफ़ कर देंगे या ऐसी स्थिति बना देंगे कि उनको माफ़ किया जा सके ?

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मार्मिक अपील-सिर्फ एक फ़ोन की !

मैं इतना बड़ा पत्रकार तो नहीं हूँ मगर 15 साल की पत्रकारिता में मेरी ईमानदारी ही मेरी पूंजी है.आज ईमानदारी की सजा भी भुगत रहा हूँ.पैसों के पीछे भागती दुनिया में अब तक कलम का कोई सच्चा सिपाही नहीं मिला है.अगर संभव हो तो मेरा केस ईमानदारी से इंसानियत के नाते पढ़कर मेरी कोई मदद करें.पत्रकारों, वकीलों,पुलिस अधिकारीयों और जजों के रूखे व्यवहार से बहुत निराश हूँ.मेरे पास चाँदी के सिक्के नहीं है.मैंने कभी मात्र कागज के चंद टुकड़ों के लिए अपना ईमान व ज़मीर का सौदा नहीं किया.पत्रकारिता का एक अच्छा उद्देश्य था.15 साल की पत्रकारिता में ईमानदारी पर कभी कोई अंगुली नहीं उठी.लेकिन जब कोई अंगुली उठी तो दूषित मानसिकता वाली पत्नी ने उठाई.हमारे देश में महिलाओं के हितों बनाये कानून के दुरपयोग ने मुझे बिलकुल तोड़ दिया है.अब चारों से निराश हो चूका हूँ.आत्महत्या के सिवाए कोई चारा नजर नहीं आता है.प्लीज अगर कोई मदद कर सकते है तो जरुर करने की कोशिश करें...........आपका अहसानमंद रहूँगा. फाँसी का फंदा तैयार है, बस मौत का समय नहीं आया है. तलाश है कलम के सच्चे सिपाहियों की और ईमानदार सरकारी अधिकारीयों (जिनमें इंसानियत बची हो) की. विचार कीजियेगा:मृत पत्रकार पर तो कोई भी लेखनी चला सकता है.उसकी याद में या इंसाफ की पुकार के लिए कैंडल मार्च निकाल सकता है.घड़ियाली आंसू कोई भी बहा सकता है.क्या हमने कभी किसी जीवित पत्रकार की मदद की है,जब वो बगैर कसूर किये ही मुसीबत में हों?क्या तब भी हम पैसे लेकर ही अपने समाचार पत्र में खबर प्रकाशित करेंगे?अगर आपने अपना ज़मीर व ईमान नहीं बेचा हो, कलम को कोठे की वेश्या नहीं बनाया हो,कलम के उद्देश्य से वाफिक है और कलम से एक जान बचाने का पुण्य करना हो.तब आप इंसानियत के नाते बिंदापुर थानाध्यक्ष-ऋषिदेव(अब कार्यभार अतिरिक्त थानाध्यक्ष प्यारेलाल:09650254531) व सबइंस्पेक्टर-जितेद्र:9868921169 से मेरी शिकायत का डायरी नं.LC-2399/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 और LC-2400/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 आदि का जिक्र करते हुए केस की प्रगति की जानकारी हेतु एक फ़ोन जरुर कर दें.किसी प्रकार की अतिरिक्त जानकारी हेतु मुझे ईमेल या फ़ोन करें.धन्यबाद! आपका अपना रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा"

क्या आप कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अपने कर्त्यवों को पूरा नहीं करेंगे? कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अधिकारियों को स्टेडियम जाना पड़ता है और थाने में सी.डी सुनने की सुविधा नहीं हैं तो क्या FIR दर्ज नहीं होगी? एक शिकायत पर जांच करने में कितना समय लगता है/लगेगा? चौबीस दिन होने के बाद भी जांच नहीं हुई तो कितने दिन बाद जांच होगी?



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