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शुक्रवार, मई 31, 2013

पुलिस व्यवस्था में सुधार की दरकार

इन दिनों दिल्ली समेत समूचे देश की पुलिस आलोचनाओं से घिरी है। महिला-हिंसा में वृध्दि ने पुलिस के विरुध्द जनाक्रोश को और भी बढ़ा दिया है। वैसे भी पुलिस का चरित्र जनता में विश्वास जगाने में कभी सफल नहीं रहा। उसके आचरण से ही उसकी संवेदनहीनता उजागर हो जाती है। जब दिल्ली में दुष्कर्म पीड़िता पांच वर्षीया गुड़िया के पिता को दो हज़ार रुपये थमाकर पुलिस टाल देना चाहती है या दुष्कर्म के विरुध्द प्रदर्शन करती युवती को पुलिस उपायुक्त चांटे जड़ देते हैं या अलीगढ़ में पीड़िता के माता-पिता को पुलिसकर्मी पीटते हैं या घरेलू हिंसा, दुष्कर्म, हत्या और लड़कियों की गुमशुदगी जैसे गंभीर मामलों में भी पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज़ करने की बजाय पीड़ित पक्ष को डरा-धमकाकर भगा दिया जाता है, तो स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस व्यवस्था महिलाओं के प्रति कितनी संवेदनहीन है !फिर जब बुलन्दशहर में दुराचार की रपट लिखवाने गयी दस वर्षीया दलित बालिका को महिला थाने की पुलिसकर्मियों ने हवालात में बन्द कर दिया तो यह भी सिध्द हो गया कि महिला और पुरुषकर्मियों की मानसिकता में कोई अन्तर नहीं होता, दोनों समान रूप से संवेदनहीन होते हैं।

पुलिस एक्ट के अनुसार, पुलिस का प्रमुख कार्य आम नागरिकों की सुरक्षा का ध्यान रखना, अपराध रोकना और अपराधियों को सज़ा दिलवाना है। लेकिन पुलिस अधिकतर राजनेताओं की सेवा में ही लगी रहती है। दिल्ली पुलिस को हर साल बीस हज़ार से अधिक बार महत्वपूर्ण लोगों व कार्यक्रमों को सुरक्षा प्रदान करनी पड़ती है। विशिष्ट लोगों के रूट पर, उनके कार्यक्रम और परिवार की सुरक्षा में व्यस्त रहना पड़ता है। जितनी बार और जितने अधिक पुलिसकर्मी इन गतिविधियों में संलग्न रहते हैं, उतनी बार उतने पुलिस की आम जनता के बीच उपलब्धाता घट जाती है। सोचने की बात है कि एक वर्ष में दिल्ली में 1434 प्रदर्शन, 779 धारने व हड़ताल, 176 रैलियां, 932 जलसे और 613 मेले व त्योहार के आयोजन हो तथा 1897 वीआईपी आगमन और 2033 अन्य सुरक्षा प्रबंधान के अलावा लगभग 2000 मौकों पर विशिष्ट जन को सुरक्षा देनी हो तो कितने अतिरिक्त पुलिसकर्मियों की आवश्यकता होगी ? दिल्ली में पुलिस का ध्यान कानून व्यवस्था से अधिक राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व विदेश से आये राजनीतिज्ञों की सुरक्षा पर रहता है। गत वर्ष एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय 106 बार राष्ट्रपति, 165 बार उपराष्ट्रपति और 160 बार यही रूट प्रधानमंत्री के लिए लगा। 113 विदेशी राजनेताओं, 280 खास विदेशी मेहमानों और 8822 राज्यों के महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा पर पुलिस को विशेष ध्यान देना पड़ा। ऐसे में दिल्ली में अपराधा नियंत्रण और आम जनता की रक्षा हेतु पुलिस की उपलब्धता का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यही स्थिति अन्य राज्यों और उनकी राजधानी की है।

जब-जब देश में कानून की व्यवस्था बिगड़ती है तब-तब पुलिस जनाक्रोश का शिकार होती है। हर कोई पुलिस को नाकारा साबित करने में जुट जाता है। सोचने की बात यह है कि 1861 में बने पुलिस कानून में 152 वर्ष बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ है। सन 1953 में देश के पहले राष्ट्रीय अपराध सर्वेक्षण में कहा गया था-'पुलिस का स्तर बहुत गिर गया है। न तो जांच के तरीके आधुनिक हुए हैं और न ही ग्रामीण थानों में सुविधाएं।' यह स्थिति आज भी पूर्ववत है। हम विदेशों से अपनी तुलना करते हैं। हमारे पुलिस अधिकारी बेहतर बनने का गुर सीखने के लिए विकसित राष्ट्रों में भेजे जाते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए, न्यूयार्क की पुलिस जितना पैसा सिर्फ गश्त पर खर्च करती है, उससे आधो में दिल्ली पुलिस के वेतन भत्ते समेत तमाम खर्च निपट जाते हैं। दुनिया में एक लाख की आबादी पर 250 पुलिसकर्मियों की कमी है। आज पुलिस में जाने के इच्छुक युवाओं की संख्या नगण्य है, यह कोई आकर्षक नौकरी नहीं है। पुलिसकर्मियों से उनके अधिकारी अपने बंगले में काम करवाते हैं। पूरे देश में सुरक्षा कार्य को छोड़कर वे वीआईपी की सुरक्षा में ही अधिकतर व्यस्त हैं, इससे निज़ात मिले तो वे आम जनता की सुरक्षा में तैनात हो सकें।

ग़ौरतलब है कि देश में पुलिस और प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता लम्बे समय से अनुभव की जा रही है। सरकार द्वारा गठित प्रशासित सुधार आयोगों और कई समितियों ने इस संदर्भ में कई बार अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में कई बार अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र व राज्य सरकारों को निर्देश दिए हैं। पर सरकारें इस मामले में उदासीन हैं। तीस वर्ष पूर्व ही राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पुलिस प्रशिक्षण को प्रोफेशनल बनाने की सिफारिश की थी और अपराध शास्त्र जैसे विषय का ज्ञान देने के साथ-साथ अपराध के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को समझने की योग्यता विकसित करने पर भी बल दिया था। मगर क्या हुआ ? आज भी पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र में नवनियुक्त अधिकारियों को प्रशिक्षण देने वाले स्वयं ही उक्त ज्ञान एवं योग्यता नहीं रखते। भारतीय पुलिस सेवा के प्रोबेशनर भी प्रतिस्पर्धाी परीक्षा में उत्तीर्ण होते ही स्वयं को विधिवेत्ता मान लेते हैं और प्रशिक्षण में कोई रूचि नहीं लेते। जबकि अपराधों की रोकथाम, अपराधियों की मानसिकता को समझने और पीड़ितों के साथ मानवीय व्यवहार करने हेतु अपने कार्यक्षेत्र से संबंधित विषय का सम्यक ज्ञान और समूचित प्रशिक्षण नितान्त आवश्यक है। पर केन्द्र व राज्य सरकारों ने इस ओर अब तक ध्यान नहीं दिया है।

स्मरणीय है कि वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों पर बल देते हुए कुछ सुझाव दिए थे। 2007 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी एक रपट प्रस्तुत की थी। फिर केन्द्र सरकार द्वारा 'सोली सोराबजी समिति' का गठन किया गया जिसने 'मॉडल पुलिस एक्ट' का विधोयक तैयार किया था। इस समिति ने बहुत महत्वपूर्ण सुझाव दिये जिन्हें अमल में लाया जाना चाहिए। तदनुसार-कांस्टेबल का पद समाप्त कर उसके बदले सिविल अफसर की नियुक्ति की जानी चाहिए। इनकी आयु सीमा 18 से 23 वर्ष और न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता कक्षा दसवीं तक होनी चाहिए। सिविल पुलिस अफसरों (सीपीओ) को तैनाती के पूर्व वैतनिक कैडेट के रूप में तीन वर्ष तक अपने कार्य का सैध्दान्तिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाए। इसके बाद एक परीक्षा ली जाए। ताकि वे पुलिस स्टडीज़ में स्नातक की उपाधि प्राप्त कर सकें। यह उपाधि सम्बंधित राज्य के मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से ग्रहण की जाए।

वैतनिक कैडेट को परीक्षा उत्तीर्ण करने हेतु केवल दो अवसर दिए जाएं। उत्तीर्ण कैडेट को पुलिस विभाग में सिविल पुलिस अफसर ग्रेड 2 के रूप में नियुक्ति दी जाए। यह पुलिस की सबसे निचली रैंक होगी। आगे उन्नत क्रम में श्रेणियां होगी-सीपीओ ग्रेड 1, सब इन्स्पेक्टर और इन्स्पेक्टर। अभी कांस्टेबल को अपने सेवा काल में हेड कांस्टेबल के रूप में बस एक पदोन्नति मिल जाती है। जबकि सीपीओ को पदोन्नति के तीन अवसर मिलेंगे और उसकी कार्य अवधि भी शिफ्ट के रूप में निश्चित की जाएगी। इससे उसकी कार्यक्षमता और प्रदर्शन में लगातार सुधार हो सकेगा।

अब तक पुलिस की भर्ती लिखित परीक्षा और शारीरिक दक्षता के आधार पर होती है। अत: अभ्यर्थी के मानसिक व्यक्तित्व, संवेदनशीलता, नैतिकता, ईमानदारी, कानून की समझ आदि का आंकलन नहीं हो पाता। अंग्रेजों के जमाने में भारतीय जनता को दबाये रखने के लिए ही पुलिस बल का दमनकारी स्वरूप रखा गया था। जो शासको के प्रति जवाबदेह था, जनता के प्रति नहीं। मगर आज भी उसकी प्रतिबध्दता सत्ता पक्ष के प्रति दिखाई  देती है। जनता के प्रति उसके निर्मम और गैरजिम्मेदाराना रवैये से तो यही सिध्द होती है। जबकि आज पूरे देश में अपराधा बढ़ रहे हैं, उनपर नियंत्रण हेतु पर्याप्त संख्या में संवेदनशील और शिक्षित पुलिस बल की नियुक्ति होनी चाहिए। जो कानून व्यवस्था को ईमानदारीपूर्वक लागू करे और जनता में यह विश्वास जगाए कि पुलिस बिना किसी भेदभाव के उसे सुरक्षा एवं न्याय सुलभ करवाने के लिए है। स्वस्थ सामाजिक पर्यावरण के लिए भी यह आवश्यक है।

सोली सोराबजी समिति की सिफारिशें व्यावहारिक एवं स्वीकार्य होते हुए भी अभी तक ठण्डे बस्ते में हैं। अलबत्ता पुलिस सुधार पर बहुत चर्चाएं हो रही हैं। पुलिस राज्य सूची का विषय है। इस पर विचार हेतु केन्द्रीय गृहमंत्री ने मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन आयोजित किया तो सरकार से बहुत उम्मीद बंधी। मगर गैरकांग्रेसी तो दूर, कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी सम्मेलन में भाग लेना जरूरी नहीं समझा। उन्होंने अपना लिखित भाषण और प्रतिनिधि भेज दिया जिन्होंने प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को संघीय ढांचे के खिलाफ ठहरा दिया। शायद इसलिए कि देश के विभिन्न राज्यों की सरकारें यही चाहती हैं कि पुलिस उनकी जी हुजूरी करती रहे। उन्हें देश में कानून लागू करने वाले या दबंग होकर अपराधियों पर टूट पड़ने वाले अफ़सर नहीं चाहिए। क्योंकि प्राय: सत्तारूढ़ दल के नेता, विधायक, सांसद, पदाधिकारीगण व कार्यकर्ता भी अपराधियों, समाजकंटकों, आतंकवादियों और देशद्रोहियों को संरक्षण देते हैं। पुलिस उनपर स्वेच्छा से कार्रवाई नहीं कर पाती। इसके व्यापक दुष्परिणाम उजागर होते आए हैं। फिर भी पुलिस सुधार की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। पुलिस की नपुंसकता और सड़ी-गली व्यवस्था के लिए सरकार ही जिम्मेदार है। आखिर हम आज़ाद भारत में भी अंग्रेजों के जमाने के पुलिसिया ढांचे को क्यों ढोये जा रहे हैं ?

क्या यह शर्मनाक नहीं कि जिस पुलिस का चरित्र सर्वविदित है उसकी समीक्षा हेतु सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि को यहां आमंत्रित किया ? और 11 दिनों तक विभिन्न राज्यों में भ्रमण कर पुलिस का अध्ययन करने के बाद क्रिस्टोफ हाइन्स ने जो रपट प्रस्तुत की, उसमें ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे सरकार पहले से अवगत न हो। बल्कि हाइन्स का एक आकलन ग़लत है कि, 'भारत इतने तरह के विद्रोहों और उग्रपंथियों से भरा हुआ है कि पुलिस को कई इलाकों में अनचाहे भी कड़क होना पड़ता है। पुलिस से अगर हथियार और अधिकार छीन लिए जाए तो देश के कई इलाकों में अपराधियों का राज हो जाएगा।' भला इस आकलन का क्या औचित्य है ?

जरा सोचिए, क्या अपने देश की बुराइयों या कमियों को विदेशियों से प्रमाणित करवाना कोई समझदारी भरा कदम है ? क्या इससे देशवासी गौरवान्वित होंगे ? निश्चय ही, सुधार की आवश्यकता पुलिस ही नहीं वरन्, समूचे तंत्र में है। अब सरकार को मॉडल पुलिस एक्ट लागू करने में विलंब नहीं करना चाहिए। सोली सोराबजी समिति की सिफ़ारिशों पर सभी राज्यों की सहमति जुटाने और कानून व्यवस्था की स्थिति सुदृढ़ करने पर सरकार का ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। यह वर्तमान परिस्थितियों की मांग है, जिसकी अनदेखी उचित नहीं।
 लेखिका-डॉ. गीता गुप्ता द्वारा लिखित एवं खरी न्यूज डॉट कॉम से साभार.

गुरुवार, अप्रैल 25, 2013

दिल्ली देखी तेरी दिलदारी

इधर दिल्ली को दिलदार-दिल्ली का टैग मिला और उधर पुलिसवालों ने गुड़िया के घरवालों को खर्चा-पानी के लिए दो हजार रुपए की पेशकश कर अपनी दिलदारी दिखाई। यह अवश्य ही दिल्ली के दिलदार होने का ही असर रहा होगा कि पुलिसवालों ने किसी को खर्चा-पानी देने की बात तो की। वरना वे तो खर्चा-पानी लेने के लिए ही जाने जाते हैं। मांग करते रहते हैं कि कुछ तो दिलदारी दिखाओ। खैर जी, वैसे तो दिल्ली को पहले भी दिलवालों की दिल्ली ही कहा जाता था- दिल्ली है दिलवालों की। पर दिल्ली में दिल कहां है? लोग ढ़ूंढने में लगे हैं और वो कहीं मिल ही नहीं रहा। अपनी नन्हीं बेटियों से बलात्कार करनेवालों में दिल होता है क्या? उनके साथ बर्बरता, हैवानियत और पशुता दिखाने वालों की दिल्ली को दिलदार कहने वालों को बहादुरी का कोई बड़ा- सा तमगा अवश्य ही दिया जाना चाहिए। पशुओं में तो दिल अवश्य ही होता है, इसीलिए वे अपने बच्चों की रक्षा करने के लिए जी-जान लड़ा देते हैं, पर दिल्लीवालों में भी होता है, कहना मुश्किल है। वह दिसम्बर में भी नहीं दिखा, वह अप्रैल में भी नहीं दिखा। दिसम्बर में लगा था कि कुछ बदलेगा। अप्रैल तक आते-आते पता चला कि कुछ भी नहीं बदला है। सब ज्यों का त्यों है। दिल्लीवालों की हैवानियत भी, पुलिसवालों की बेदिली भी, सरकार की उदासीनता भी, भीड़ का आक्रोश भी। और उस आक्रोश का ढोंग भी। सब-कुछ ज्यों का त्यों। दिल्ली की मुख्यमंत्री कहती हैं कि दिल्ली में रहते हुए तो उनकी बेटी भी डरती है। फिर भी उन्होंने दिल्ली को दिलदार दिल्ली का टैग दिया। उन्हें कतई डर नहीं लगा। उन्होंने सचमुच बहादुरी दिखाई। लेकिन ऐसा करते वक्त कहीं उन्होंने सिर्फ दिल्ली पुलिस की ही राय तो नहीं ली, जिसने हो सकता है कह दिया हो कि हम से दिलदार कौन होगा जी जो हमेशा जनता का साथ देने के लिए तैयार रहते हैं। हो सकता है जिस बच्ची को एसीपी अहलावत साहब ने थप्पड़ मारा उसे भी यही भ्रम रहा हो कि दिल्ली पुलिस तो हमेशा हमारे साथ रहती है। एसीपी साहब का हाथ उस वक्त खुजली कर रहा होगा और खर्चा-पानी आ नहीं रहा होगा, सो उन्होंने उस बच्ची को जड़ दिया, वरना दिलदारी में तो कोई कमी नहीं रही होगी। वैसे जी, दिल्ली पुलिस की शिकायत जायज है कि हमेशा हम ही निशाने पर क्यों रहते हैं। कमिश्नर साहब को शिकायत है कि हर बार मुझसे ही इस्तीफा क्यों मांगा जाता है। प्रदर्शनकारी भी मांग रहे हैं, विपक्ष वाले भी मांग रहे हैं और सत्ताधारी भी मांग रहे हैं। खुद मुख्यमंत्री भी उनका इस्तीफा मांगती रहती हैं। इस पर उन्हें नाराज नहीं होना चाहिए। क्योंकि उनके इस्तीफे की मांग समान भाव से की जाती है। पर जी प्रदर्शनकारी, विपक्ष वाले और सत्ताधारी चाहे कितने ही संकीर्ण हों, खुद कमिश्नर साहब इतने दिलदार हैं कि कह रहे हैं कि अगर उनके इस्तीफा देने से यह हैवानियत रुक जाए तो वे हजार बार इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं। इसे कहते हैं दिलदारी। बताइए एक बार इस्तीफा न देना पड़े, इसलिए हजार बार की बात करने लगे। इसे कहते हैं कि न नौ मन तेल होगा और न ही राधा नाचेगी। पर जी, दिल्ली पुलिस की यह शिकायत जायज है कि बलात्कार तो पूरे देश में हो रहे हैं। कांग्रेसी शिकायत कर रहे हैं कि मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा बलात्कार होते हैं, पर भाजपा वाले, वहां किसी का इस्तीफा नहीं मांगते। पर जी दिल्ली भी दिलदारी कम ना दिखाती। यहां की पुलिस दिलदार कि पीड़िता के घरवालों को दो हजार रुपए खर्चा-पानी के लिए ऑफर कर देती है, कहां की पुलिस करती है बताइए। यहां के प्रेमीजन तो इतने दिलदार हैं कि सीधे माशूका के दिल में छुरा मारते हैं। दिल घायल करने का और कोई तरीका उन्हें मालूम ही नहीं। अभी तक आशिक कत्ल होते आए थे पर अब दिलदार-दिल्ली में आशिक, माशूकाओं को कत्ल करते हैं। यहां के अड़ोसियों- पड़ोसियों की दिलदारी तो ऐसी है कि वे आपस में झगड़ा नहीं करते, बच्चियों को उठा लेते हैं और उनके साथ रेप करते हैं। मकान मालिक इतने दिलदार कि अपने किराएदारों को तंग करते उनकी औरतों के साथ बलात्कार करते हैं। और सगे- संबंधी इतने दिलदार की बहु-बेटियों को ही नहीं छोड़ते। ऐसे में दिल्ली के नेता भी कम दिलदार नहीं, वे किसी भी मुद्दे पर राजनीति करने से बाज नहीं आते। 
लेखक "सहीराम" द्वारा लिखित "कटाक्ष" कोलम से साभार.

गुरुवार, मार्च 28, 2013

अग्रवाल समाज द्वारा होली मंगल मिलन समारोह

नई दिल्ली :- गत दिन - बुधवार, दिनांक 27/03/2013 को दोपहर तीन बजे से छह बजे तक एस-40/41, परमपुरी, नजदीक शिव मंदिर, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59 में "अग्रवाल समाज, उत्तम नगर (रजि.) द्वारा आयोजित आपसी भाईचारे का प्रतीक "होली मंगल मिलन समारोह" संपन्न हुआ.
 
 
 
 

जिसमें अग्रवाल व जैन समाज के गणमान्य व्यक्तियों ने शिरकत की. इस मौके पर संस्था के महामंत्री नरेश अग्रवाल, प्रधान जगदीश बंसल, अशोक बंसल, सुरेश गर्ग, संजय अग्रवाल, सुरेश डालमिया, रवि जैन, पवन गर्ग, कृष्णशरण जिंदल, हरि किशन गोयल, रामधन जिंदल, पवन सिंगला आदि सहित भाजपा के पवन शर्मा और पूर्व पार्षद श्रीमती सरिता जिंदल, सुनील जिंदल शामिल हुए. इस अवसर संस्था ने सभी विशेष आमंत्रित व मुख्य अतिथिगणों सहित अपने पूर्व प्रधान व महामंत्रियों का चादर ओढाकर और पगड़ी पहनाकर सम्मान किया. 
 
 

इस अवसर पर भगवान श्री कृष्ण-राधा जी के गायिका सविता राघव द्वारा गाए कर्ण प्रिय गीतों की धुन पर उपस्थित व्यक्तियों ने फूलों की होली खेलते हुए झूम-झूमकर नाचें और संगीतमयी रंगारंग प्रस्तुति "साहित्य कला परिषद" के कलाकारों द्वारा कई प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ सम्पन्न हुआ. 

कार्यक्रम देखने आये सभी आमंत्रित सभी मेहमानों के लिए जलपान की व्यवस्था के साथ ही प्रसाद रूपी गुंजिया की विशेष व्यवस्था की हुई थी. कार्यक्रम के कुछ चुनिन्दा पलों की वीडियो नीचे दिए लिंकों पर क्लिक करके देखें. 

सोमवार, मार्च 25, 2013

होली मंगल मिलन और अन्नदान समारोह

गतदिन  दिनांक 23/03/2013 शाम चार बजे "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" के सभी सदस्यों ने चैम्बर नं.217, डिस्ट्रिक सैटर, जनकपुरी, नई दिल्ली-58 में होली मंगल मिलन समारोह बनाने के साथ ही अपनी "अन्न दान" योजना के तहत एक गरीब परिवार को पूरे एक महीने का राशन (जिसमें आटा, चावल, चीनी, तेल, घी, चायपत्ती, साबुन आदि गृहस्थी में उपयोगी खाने की सभी वस्तुएं शामिल थी) दिया. 
 
 
 
 
इस कार्यक्रम में "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" के सभी सदस्यों ने भविष्य में किये जाने सामाजिक कार्यों को लेकर विचार-विमर्श किया और योजनाओं की रुपरेखा तैयार की. फिर सभी ने एक-दूसरे चंदन लगाते हुए गुलाल का ठीका लगाकर गले मिलकर होली की मुबारकबाद दी. जिसमें "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" के एडवोकेट श्री के.सी. मैनी, एडवोकेट अशोक कुमार त्यागी, एडवोकेट अमरदीप मैनी, देशराज लाम्बा, स्वदेश गोस्वामी, जयवीर, पत्रकार रमेश कुमार जैन @ निर्भीक सहित अनेक सदस्य शामिल हुए.

रविवार, मार्च 10, 2013

निर्धन कन्याओं का सामूहिक विवाह समारोह

आज दिनांक 10/03/2013 को महाशिवरात्रि के सुअवसर पर "गौरी शंकर चैरिटेबल ट्रस्ट (पंजी.) नई दिल्ली" के द्वारा स्थान-शिव शक्ति मंदिर, कैलास कालोनी मार्किट, नजदीक मैट्रो स्टेशन, नई दिल्ली-110048 में सुबह साढ़े दस बजे घुड़चडी एवं सेहरा बंदी के साथ कार्यक्रम की शुरुयात होकर बारात एवं अतिथिगण स्वागत, प्रीती भोज और विदाई आदि व्यवस्थाओं के साथ ही निर्धन 12 कन्याओं का सामूहिक विवाह समारोह सम्पन्न करवाया गया.
जिसमें "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" सभी सदस्यों ने 21, 000 (इक्कीस हजार) रूपये का नकद योगदान दिया और इस मंगलमय कार्यक्रम में "लायंस क्लब दिल्ली साऊथ" के श्री के.सी. मैनी, अशोक कुमार त्यागी, सी.एम्.तनेजा, देवराज बधवार, पत्रकार रमेश कुमार जैन @ निर्भीक सहित अनेक सदस्य शामिल हुए. 
 सामूहिक विवाह (निर्धन 12 कन्याओं का) में सभी वर-वधुओं को घर-गृहस्थी का सजो-सामान दिया गया और वर-वधुओं के परिजनों के लिए भोजन आदि की पूरी व्यवस्था भी की गई थी. इस मंगलमय मंगलमय कार्यक्रम के अवसर पर प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा (नेता-विपक्ष, दिल्ली विधानसभा), श्रीमती आरती मेहरा (पूर्व महापौर,दिल्ली) सहित समाज के अनेक गणमान्य अतिथियों ने अपनी उपस्थित दर्ज करवाई. (लेखक के साथ फेसबुक यहाँ पर क्लिक करके जुड़ें)





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मार्मिक अपील-सिर्फ एक फ़ोन की !

मैं इतना बड़ा पत्रकार तो नहीं हूँ मगर 15 साल की पत्रकारिता में मेरी ईमानदारी ही मेरी पूंजी है.आज ईमानदारी की सजा भी भुगत रहा हूँ.पैसों के पीछे भागती दुनिया में अब तक कलम का कोई सच्चा सिपाही नहीं मिला है.अगर संभव हो तो मेरा केस ईमानदारी से इंसानियत के नाते पढ़कर मेरी कोई मदद करें.पत्रकारों, वकीलों,पुलिस अधिकारीयों और जजों के रूखे व्यवहार से बहुत निराश हूँ.मेरे पास चाँदी के सिक्के नहीं है.मैंने कभी मात्र कागज के चंद टुकड़ों के लिए अपना ईमान व ज़मीर का सौदा नहीं किया.पत्रकारिता का एक अच्छा उद्देश्य था.15 साल की पत्रकारिता में ईमानदारी पर कभी कोई अंगुली नहीं उठी.लेकिन जब कोई अंगुली उठी तो दूषित मानसिकता वाली पत्नी ने उठाई.हमारे देश में महिलाओं के हितों बनाये कानून के दुरपयोग ने मुझे बिलकुल तोड़ दिया है.अब चारों से निराश हो चूका हूँ.आत्महत्या के सिवाए कोई चारा नजर नहीं आता है.प्लीज अगर कोई मदद कर सकते है तो जरुर करने की कोशिश करें...........आपका अहसानमंद रहूँगा. फाँसी का फंदा तैयार है, बस मौत का समय नहीं आया है. तलाश है कलम के सच्चे सिपाहियों की और ईमानदार सरकारी अधिकारीयों (जिनमें इंसानियत बची हो) की. विचार कीजियेगा:मृत पत्रकार पर तो कोई भी लेखनी चला सकता है.उसकी याद में या इंसाफ की पुकार के लिए कैंडल मार्च निकाल सकता है.घड़ियाली आंसू कोई भी बहा सकता है.क्या हमने कभी किसी जीवित पत्रकार की मदद की है,जब वो बगैर कसूर किये ही मुसीबत में हों?क्या तब भी हम पैसे लेकर ही अपने समाचार पत्र में खबर प्रकाशित करेंगे?अगर आपने अपना ज़मीर व ईमान नहीं बेचा हो, कलम को कोठे की वेश्या नहीं बनाया हो,कलम के उद्देश्य से वाफिक है और कलम से एक जान बचाने का पुण्य करना हो.तब आप इंसानियत के नाते बिंदापुर थानाध्यक्ष-ऋषिदेव(अब कार्यभार अतिरिक्त थानाध्यक्ष प्यारेलाल:09650254531) व सबइंस्पेक्टर-जितेद्र:9868921169 से मेरी शिकायत का डायरी नं.LC-2399/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 और LC-2400/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 आदि का जिक्र करते हुए केस की प्रगति की जानकारी हेतु एक फ़ोन जरुर कर दें.किसी प्रकार की अतिरिक्त जानकारी हेतु मुझे ईमेल या फ़ोन करें.धन्यबाद! आपका अपना रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा"

क्या आप कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अपने कर्त्यवों को पूरा नहीं करेंगे? कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अधिकारियों को स्टेडियम जाना पड़ता है और थाने में सी.डी सुनने की सुविधा नहीं हैं तो क्या FIR दर्ज नहीं होगी? एक शिकायत पर जांच करने में कितना समय लगता है/लगेगा? चौबीस दिन होने के बाद भी जांच नहीं हुई तो कितने दिन बाद जांच होगी?



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