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अपने चुनाव चिन्ह "कैमरा"के साथ सिरफिरा |
एक बात पक्की है कि जिस वैकल्पिक मीडिया की बात हम लोग करते आ रहे थे, वह यही है. जहां अभिव्यक्ति की इतनी अधिक स्वतंत्रता है कि-आप गाली-गलौज भी कर सकते हैं. लेकिन क्या हमें इस स्वतंत्रता का दुरूपयोग करना चाहिए या फिर सचमुच हमारे पास हिन्दी में लिखने के लिए कुछ ऐसा है ही नहीं, जो समूह के हित के लिए हम लिख सकें? आमतौर पर हम इस माध्यम को अपनी कला, हुनर, बुद्धि, भड़ास आदि निकालने के लिए कर रहे हैं. पितामह ब्लागरों से लेकर नये-नवेले ब्लागरों तक एक बात साफ तौर पर दिखती है कि शुरूआत जहां से होती है वहां से सीढ़ी उत्थान की ओर नहीं पतन की ओर घूम जाती है. यह छीजन अनर्थकारी है.
मैं इस दुनिया में कुल नौ महीने पुराना हूं. मैंने अब तक दो लोगों को ब्लाग बनाने और चलाने के लिए प्रेरित किया है, कई लोगों को अपनी पोस्टों द्वारा देवनागरी की हिंदी लिपि लिखनी सिखाने में मदद की. मैंने अनेक लोगों को छोटी-मोटी जानकारी फ़ोन पर भी दी.इसलिए मैंने अपने फ़ोन नं. भी ब्लॉग पर दे रखे हैं, क्योंकि मेरा विचार है कि-जिस प्रकार मुझे शुरुयात जानकारी न होने से परेशानी हुई थी. अगर किसी को कोई परेशानी हो तो जितनी भी मुझे जानकारी हो दे सकूँ. आज वे दोनों आज ब्लाग की दुनिया में शामिल हो चुके हैं. मुझे लगता है कि अगर हम ऐसे दो-चार लोगों को जोड़ सकें. जो आगे भी दो-चार लोगों को जोड़ने की क्षमता रखते हैं तो परिणाम आशातीत आयेंगे.आप बताईये अपने-आप को कौन अभिव्यक्त नहीं करना चाहेगा. शुरूआत में कुछ ब्लागर मित्रों ने मुझे प्रोत्साहित न किया होता, मेरी तकनीकि तौर पर मदद न की होती और अभी भी कर रहे हैं. एक बार मैं भी जैसे-तैसे घूमते-फिरते यहां पहुंचा था. वैसे ही टहलते-घूमते बाहर चला जाता. उन्हीं मित्रों के सहयोग का परिणाम है कि मैं यहां टिक गया और ब्लाग में मुझे वैकल्पिक मीडिया नजर आने लगा है.
टी.वी. ने खबरों के साथ जैसा मजाक किया है, उससे खबर की परिभाषा पर ही सवाल खड़ा हो गया है. मैं कहीं से यह मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि टी.वी. और पत्रकारिता का कोई संबंध है. हमें किसी से ज्यादा गहराई की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. लेकिन यह भी नहीं हो सकता कि-कोई इतना हल्का हो जाए कि उसके होने-न-होने का मतलब ही समाप्त हो जाए. टीआरपी के लिए टी.वी.चैनल खोलते हैं. यह टी.आर.पी जो संस्थाएं तय करती हैं, वे उन्हीं व्यावसायिक घरानों के दिमाग की उपज हैं. जो प्रत्यक्ष तौर पर मनुष्य का शोषण करती हैं. इस लिहाज से टी.वी. चैनल भी परोक्ष रूप से जनता के शोषण के हथियार हैं, वैसे ही जैसे ज्यादातर बड़े अखबार. ये प्रसार माध्यम हैं जो विकृत होकर कंपनियों और रसूखवाले लोगों की गतिविधियों को समाचार बनाकर परोस रहे हैं.
ब्लागर इसमें हस्तक्षेप कर सकते हैं. खबर की परिभाषा ठीक बनाए रखना है, तब हमें यह करना भी चाहिए. नहीं तो कल जब ब्लागरों की दुनिया इतनी बड़ी हो जाएगी कि- इसका ओर-छोर नहीं होगा. तब यह कमी दंश के रूप में चुभेगी कि-काश उस समय सोच लिया होता, दुर्भाग्य से तब हम समय के बहुत आगे निकल चुके होंगे. हमारी समझ ब्लागजगत का सीमांकन कर चुका होगा और हम खुद को ही छला हुआ महसूस करेंगे. (क्रमश:) (लेख का कुछ भाग संकलन किया हुआ है इसका सन्दर्भ फ़िलहाल याद नहीं है, मगर लेख का उद्देश्य जनहित है)
बहुत अच्छा आलेख है। यदि इस का कुछ भाग छूट गया है तो उसे दूसरी किस्त में प्रस्तुत कीजिएगा।
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा है
जवाब देंहटाएंटी.वी. चैनल भी परोक्ष रूप से जनता के शोषण के हथियार हैं, वैसे ही जैसे ज्यादातर बड़े अखबार. ये प्रसार माध्यम हैं जो विकृत होकर कंपनियों और रसूखवाले लोगों की गतिविधियों को समाचार बनाकर परोस रहे हैं.
बिलकुल सही कहा मेरे दोस्त .... अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया.. शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने भाई
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने
जवाब देंहटाएंसही है बदलाव होना चाहिए
जवाब देंहटाएंRamesh kumar ji me aaap ki is bat happy hu ki koi to desh ke bare me acha vichar fes karta .
जवाब देंहटाएंThanks R.K. ji.