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सोमवार, दिसंबर 05, 2011

मांगे मिले नहीं भीख, बिन मांगे मोती मिले

दोस्तों, मुझे बिन मांगे ही लड़कियां और महिलाएं अपना फ़ोन नम्बर क्यों दे देती हैं ? वैसे कहा जाता है कि-मांगे मिले नहीं भीख, बिन मांगे मोती मिले. क्या "सिरफिरा" लड़कियां और महिलाएं की नज़र में इतना विश्वास करने योग्य है ? क्या आप मानते हैं कि-एक बुध्दिजीवी व्यक्ति नारी का सम्मान करना जानता हैं ? इसलिए ही उस पर भरोसा करती हैं और अगर वो स्वार्थवश या किसी अन्य कारणों द्वारा विश्वासघात करता हैं. तब क्या उसको अपने आपको बुद्धिजीवी कहलवाने का अधिकार है ?
       दोस्तों, आप इस विषय (बात) पर अपने विचार जरुर व्यक्त करें. केवल पसंद का बटन न दबाये.
नोट:- जब मेरे दोस्त किसी महिला या लड़की का मुझसे फ़ोन नम्बर मांगते हैं, तब यहीं कहता हूँ कि-दोस्त मत मांग मुझसे उसका* फ़ोन नम्बर मेरी जान मांग लें. ख़ुशी से जान दे देंगे, मगर नम्बर नहीं देंगे. खुलूस से परखो, खुलूस के लिए हम तो जान भी दे देंगे दोस्ती के लिए.
*महिला या लड़की.

1 टिप्पणी:

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मार्मिक अपील-सिर्फ एक फ़ोन की !

मैं इतना बड़ा पत्रकार तो नहीं हूँ मगर 15 साल की पत्रकारिता में मेरी ईमानदारी ही मेरी पूंजी है.आज ईमानदारी की सजा भी भुगत रहा हूँ.पैसों के पीछे भागती दुनिया में अब तक कलम का कोई सच्चा सिपाही नहीं मिला है.अगर संभव हो तो मेरा केस ईमानदारी से इंसानियत के नाते पढ़कर मेरी कोई मदद करें.पत्रकारों, वकीलों,पुलिस अधिकारीयों और जजों के रूखे व्यवहार से बहुत निराश हूँ.मेरे पास चाँदी के सिक्के नहीं है.मैंने कभी मात्र कागज के चंद टुकड़ों के लिए अपना ईमान व ज़मीर का सौदा नहीं किया.पत्रकारिता का एक अच्छा उद्देश्य था.15 साल की पत्रकारिता में ईमानदारी पर कभी कोई अंगुली नहीं उठी.लेकिन जब कोई अंगुली उठी तो दूषित मानसिकता वाली पत्नी ने उठाई.हमारे देश में महिलाओं के हितों बनाये कानून के दुरपयोग ने मुझे बिलकुल तोड़ दिया है.अब चारों से निराश हो चूका हूँ.आत्महत्या के सिवाए कोई चारा नजर नहीं आता है.प्लीज अगर कोई मदद कर सकते है तो जरुर करने की कोशिश करें...........आपका अहसानमंद रहूँगा. फाँसी का फंदा तैयार है, बस मौत का समय नहीं आया है. तलाश है कलम के सच्चे सिपाहियों की और ईमानदार सरकारी अधिकारीयों (जिनमें इंसानियत बची हो) की. विचार कीजियेगा:मृत पत्रकार पर तो कोई भी लेखनी चला सकता है.उसकी याद में या इंसाफ की पुकार के लिए कैंडल मार्च निकाल सकता है.घड़ियाली आंसू कोई भी बहा सकता है.क्या हमने कभी किसी जीवित पत्रकार की मदद की है,जब वो बगैर कसूर किये ही मुसीबत में हों?क्या तब भी हम पैसे लेकर ही अपने समाचार पत्र में खबर प्रकाशित करेंगे?अगर आपने अपना ज़मीर व ईमान नहीं बेचा हो, कलम को कोठे की वेश्या नहीं बनाया हो,कलम के उद्देश्य से वाफिक है और कलम से एक जान बचाने का पुण्य करना हो.तब आप इंसानियत के नाते बिंदापुर थानाध्यक्ष-ऋषिदेव(अब कार्यभार अतिरिक्त थानाध्यक्ष प्यारेलाल:09650254531) व सबइंस्पेक्टर-जितेद्र:9868921169 से मेरी शिकायत का डायरी नं.LC-2399/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 और LC-2400/SHO-BP/दिनांक14-09-2010 आदि का जिक्र करते हुए केस की प्रगति की जानकारी हेतु एक फ़ोन जरुर कर दें.किसी प्रकार की अतिरिक्त जानकारी हेतु मुझे ईमेल या फ़ोन करें.धन्यबाद! आपका अपना रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा"

क्या आप कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अपने कर्त्यवों को पूरा नहीं करेंगे? कॉमनवेल्थ खेलों की वजह से अधिकारियों को स्टेडियम जाना पड़ता है और थाने में सी.डी सुनने की सुविधा नहीं हैं तो क्या FIR दर्ज नहीं होगी? एक शिकायत पर जांच करने में कितना समय लगता है/लगेगा? चौबीस दिन होने के बाद भी जांच नहीं हुई तो कितने दिन बाद जांच होगी?



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